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________________ भगवान् हमें अशुद्धि एवं मृत्यु से बचा सकता है ? यदि ऐसी कोई शक्ति संसार में मिले, जो हमें सुखी, शुद्ध और अमर बना सके, तो हम उसकी खुशामद, भक्ति या प्रार्थना करें ! भारतीय दर्शन, जो वास्तव में ही एक अध्यात्म चेतना का दर्शन है, वह कहता है कि संसार की कोई अन्य शक्ति तुम्हें दुःख से बचा नहीं सकती । मृत्यु के मुँह से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती । तुम्हारी अपवित्रता को धोकर पवित्र नहीं बना सकती । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो, तुम स्वयं ही अपने जीवन के निर्माता हो, तुम्ही अपने भाग्य के नियामक हो । दु:ख किसने fear ? यह है दुःख से छुटकारा तो चाहते हो, पर वह दुःख खड़ा किसने किया ? भगवान् महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पहले यही प्रश्न संसार से पूछा था कि तुम दुःख-दुःख तो चिल्ला रहे हो, दुःख से मुक्ति के लिए नाना उपाय तो कर रहे हो, पर यह तो बताओ कि यह दुःख पैदा किसने किया -- "दुक्ये केण कडे ?" इस गम्भीर प्रश्न पर जब सब कोई चुपचाप भगवान् की ओर देखने लग गए और कहने लगे कि - प्रभु! आप ही बतलाइए, तो भगवान् महावीर ने इसका दार्शनिक समाधान देते हुए कहा- 'जीवेण कडे !' दुःख आत्मा ने स्वयं किये हैं । प्रश्न होता है कि श्रात्मा ने अपने लिए दुःख पैदा क्यों किया ? तो उसका उत्तर भी साथ ही दे दिया कि " माण" प्रमादवश उसने दुःख पैदा किया। वह किसी दूसरे के द्वारा नहीं थोपा गया है, किन्तु अपने ही प्रमाद के कारण वह दुःख अर्जित हुआ है । यह प्रशुद्धि भी किसी दूसरे ने नहीं लादी है, बल्कि अपनी ही भूल के कारण आत्मा अशुद्ध और मलिन होती गई है। जो काम अपने प्रसाद और भूल से हो गया है, उसे स्वयं ही सुधारना पड़ेगा । कोई दूसरा तो नहीं सकता। इसीलिए एक प्राचार्य ने कहा है -- यह आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं ही उसका फल भोगती है । स्वयं संसार में परिभ्रमण करती है और स्वयं ही संसार से मुक्त भी होती है । "स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥ " ईश्वर सत्कर्म क्यों करवाता है ? हमारे कुछ बन्धु इस विचार को लिए चल रहे हैं कि ईश्वर ही मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है । वह चाहे तो किसी से सत्कर्म करवा लेता है और चाहे तो ग्रसत्कर्म ! उसकी इच्छा के बिना विश्व सृष्टि का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता । किन्तु प्रश्न यह है कि यदि कर्म करवाने का अधिकार ईश्वर के हाथ में है, तो फिर वह किसी से असत्कर्म क्यों करवाता है ? सब को सत्कर्म को हो प्रेरणा क्यों नहीं देता ? कोई भी पिता अपने पुत्र को बुराई करने की शिक्षा नहीं देता, उसे बुराई की ओर प्रेरित नहीं करता । फिर यदि ईश्वर संसार का परम पिता होकर भी ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा घोटाला है। फिर तो जैसे यहाँ की राज्य सरकारों में गड़बड़ - घोटाला चल रहा है, वैसा ही ईश्वर की सरकार भी चल रहा है। जो पहले बुराई करने की बुद्धि देता है और फिर बाद में उसके लिए दण्ड दे, यह तो कोई न्याय नहीं ! जैसा कि लोग कहते हैं १७० Jain Education International "जा को प्रभु दारुण दुःख देही ताकी मति पहले हर लेही ।" For Private & Personal Use Only पना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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