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बुद्धि-विलास विसंघीन' को सेवग होय, वह श्रावक जो अपणो कोय ।
ताको गृहरण करै नहि दोष, निज मत कौं करिवा कौं पोष ॥२४६॥ अरिल : मिथ्यादृष्टि तरणी परीष्या कीजिए,
तवही वाकौं निजमत दीक्ष्या दीजिए। विनां परीक्ष्या दरसरण-मत की हांस्य है,
वहुरि आप अरु धर्म तरणौं भी नास ह ॥२४७॥ छंद लषि वाई श्रावकणी अजिका जिंह थांनक मैं वसती होय । गीता : वहुरि' मँडी चित्राम-तणी व फुनि ह्व और जाति को कोय ॥
इनकै ढिगि ह काम उदीपन मन अति चंचल ह गुन षोय ।
सिंह थानक मुनिराज सर्वथा निसि मैं सुष सोवहु मति कोय ॥२४॥ दोहा : चित्र तरणी ह फूलती, लषि उपजत अनुराग।
तौ प्रतक्ष तिय संगि रहें, क्यौं न लगै मुनि-दाग ॥२४६॥ राह मांहि भी अजिका, साथिन मुनि चालंत । प्रागें भी इन संग तै, दूष अति पाऐ संत ॥२५०॥ होय अकेली जो तिया, ताकै संगि मुनीस । भोजन करै न वैठही, गोष्टि करै न भलीस ॥२५१॥ जिह जिह' थानक के विषै, इंद्री धरै२ विकार।
ताहि छांडि मुनिवर करें, चारित रक्षा-सार ॥२५२॥ छद सामायक सतवन वंदन फुनि पड़कमणौ' पर प्रत्याक्ष्यान । गीता : वहरि करै कायोतसर्ग सव ऐ षट कहे प्रावसिक जांन ।
ऐ किरिया तजि और क्रिया कछु करहि न वहुरि गीत वाजित्र । रसमय चित अनुरागि सुनै नहि तजै रहै मुनि सदा पवित्र ॥२५३॥ जिह जिह साख और विद्या करि समकित' संजमादि गुण हांनि । होत मुनिनु के सो सव सेवन छाड़हि जे मुनिवर गुनषांनि ॥
२४६ : १ विसंघीनि। २ को। ३ सेवक। ४ अपणों । २४८ : १ बहुर। २ मडी। ३ जोय। ४ सरबथा। २४९: १ सँग। २५२ : १ जिह जिह। २ धरें। २५३ : १ पडिकमएं। २ अरु। ३ प्रत्याक्ष्यांन । ४ोर । २५४ : १ संमकित ।
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