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बुद्धि-विलास
तिन मांहि फटे हैं गछ अनेक, गहि चलन नऐ सु कहौ प्रतेक ॥१०॥ फुनि मुनिजन को जो चलन धर्म', तिनको हू विधिवत कहऊ२ मर्म । प्रभु. महावीर ते जे मुनीस, अवलौं भट्टारक है जतीस ॥१६१॥ इन' जहां जहां पायो पदस्त, सोहू वरन' करिऐ समस्त । श्रावग के हैं जो खांप गोत, तिनको वर्नन' करिऐ उद्यौत ॥१९२॥ फुनि प्रहौरात्रि किरीया' करै सु, जिन धर्म जु जैनी जिम धरै सु। विधि दया दांन की कहौ सर्व, तिम श्रावग साधहि त्याग गर्व ॥१३॥ श्रांवग मुख वात कहैं कित्तेक', जिनमत की वहु विधि करि विवेक । सोहू धरिऐ या गृथ मांहि, लखि संसय भविजन के२ मिटांहि ॥१९४॥ यह प्राग्या पाई वखतरांम, गोत है साह चाटसू ठाम । पंडित कल्यांन तै विनति कीन, यन' को हूं गृथ रचें नवीन ॥१९५॥
५ बरनन ।
६ उदोत ।
१६० : २ प्रत्येक। १६१ : १ धर्म। २ कहहु। ३ तें। १६२ : १ इनु । २ वरनन । ३ श्रावक । ४षांप। १६३ : १किरिया। २ दयां। १९४ : १ कितेक । २के। १६५ : १ इन।
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