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बुद्धि-विलास छते राज जयनगर मधि, वैठे सहु सावंत ।
लियो भिषारिनु' लूटि पुर, जस फैल्यौ विनि अंत ॥१३११॥ चौपई : तौहू सरम न आई काहु, जती भटारक पंडित साहु।
काहूँ यह न विचारी नेक, जासौं रहै धर्म' की टेक ॥१३१२॥ इष्ट मंत्र साधन की देव, काहू तनक न पकरी टेव। प्रागै हूँ देविनु को ईष्ट, करि थाप्यौ हो' जिनमत सिष्ट ॥१३१३॥ तौ अव कछु पकरि के सर्म, साधौ देव इष्ट गुर धर्म । जाते रहै जैनि मरजाद, कछु यक तौ प्रावै प्रहलाद ॥१३१४॥ कहा षाय बहु पेट वधाय, षोटे काज करत न सकाय । जिनाश्रमी र गृहस्थी कोय, साधन साधौ षुटपन षोय ॥१३१५॥ साधन मैं जिय ही नही जाय, सधैं होत मत तणी सहाय । तातें जोग्य सवनि कौं येह', मत पषि सधै सु करिये तेह ॥१३१६॥
सोरठा :
लज्जा अरु दुष पाय, वात सवनि सौं यम कही। इष्ट करौ मन लाय, मोहि दोस मति दोजियौ ॥१३१७॥ मंत्र जंत्र मैं दोस, तेरह-पंथिनु ढूंढियनु । काढ्यौ तव ते रोस, करने लगे जिना-श्रमी ॥१३१८॥
दोहा :
वनहू' ते न सरी कछू, बड़े सव ही लार । तात२ साधन मंत्र कौ, करिवौ जग मैं सार ॥१३१६॥ प्रागै देवि प्ररोधि करि, मत उथपे दिय थापि । तातै साधे' कछु२ विधन, मत मैं ह न कदापि ॥१३२०॥ जंत्र मंत्र अरु पारोध करि, करौ धर्म का काम । मारनादि' मति कीजियौ, अधरम तरणं स काम ॥१३२१॥
१३११ : १ भिषारीनु। १३१२ : १ घरम। १३१६ : १ एह। १३१६ : १ उनहूँ। २ साधन। ३ सबको । १३२० : १ साधौ। २ ज्यों । १३२१ : १ मोहनादि ।
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