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बुद्धि-विलास
दोहा :
श्रथ ऐक पद का श्लोक की संध्या वर्तन इक पद सिलोक होय, कोटि इक्यांवन प्राठ लष । सहस चौरासी' जोय, छहसं साढा वीस इक ॥ १२७७॥ 'अक्षर वतीस हजार',' लिषवा मैं स्याही लगे । पांच टांक प्रतिसार, भई पईसा ऐक भर ॥१२७८ ॥ इक पद की मरण तीन सै, ऊपरि धरि उगरणीस । वारा सेर सु टंक गिरिण, प्राध पाव' तेईस ॥ १२७६ ॥ कहैं तोल चालीस कै, पके पईसा जांनि । तिह अनुसारि सुजांनि यह, तोल सबै उर मांनि ॥१२८० ॥ द्वादसांग वांरणी सकल, अंग प्रविष्ट रु वाह्य । ताकौं स्याही जो लगं, सो सुरिग भवि करि ग्राह्य ॥१२८१ ॥ कवित : पैंतीस हजार नौ से पिच्यांरणवै' कोटि तापैं,
लाष धरि तीन तीस वहुरचौ कहत है । ऐकसौ के ऊपरि धरहु साढा अठाईस,
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ऐते मरण तापे टांक ड्योढ़ जो चहत हैं । द्वादसांग वारणी कौं लगत ऐती स्याही तोल, चालीस कै ताकौ परमारण लहत हैं । श्री जिनेंद्र मुष तै षिरी जो गणधर गूंथी, सोही वांगी जयवंती जग मैं रहत हैं ॥१२८२ ॥ कुंडलिया : श्री जिनवर मुष तें षिरी, वांगी अगम अपार । ताकै भागि असंषिवें, भेली गरणधर सार ॥ ली गनधर ताहि, श्राप कहि सक्यौ नही सव । कही जु संध्या रूप धरी श्रुत-ग्यान मद्धि तव ॥ ताही के अनुसार, कियो वरनन सब मुनिवर । वषतरांम नमि जगत, कहैं भाषित श्री जिनवर ॥१२८३ ॥
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सोरठा :
१२७७ : १ चुरासी । १२७८ : १ एक हजार ।' १२७६ : १A श्रष्टमांस | १२८२ : १ अठचारणवे ।
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२ भरि ।
२ द्वादशांग । ३ कहत ।
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