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________________ बुद्धि-विलास छठौ है प्रति कर्म मैं, दीष्या सीव्या कर्म । सप्तम दसवैकालिका, नांम तास वृक्ष कहे कुसमादि वहु, देस भेद फुनि श्राचारज तीनु कौ, वरन्यौ है उत्तराध्ययन सु आठमौं, जति नु तरणौं सहि जो फल पावै कह्यौ, स्वर्ग बहुरि नवां कल्प विवहार मैं, जति उपसर्ग सहै सु । जोग्य वस्तु' कौं श्राचरं, सोही कथन कहै सु ॥१२६८ ॥ जो अजोग्य सेवं वसत, तौ प्राछित कौं लेय । अपवर्ग ॥ १२६७ ॥ फुनि दसमो' कौ नांम यह, कल्पाकल्प कहेय ॥ १२६६ ॥ जामैं जति श्रावक सबै काल पाय आचर्ण । जोग्य जोग्य करै सु यह, कोन्हौं है सव वर्ण ॥१२७० ॥ चौपई : महा कल्प ग्यारमों वषांनौ, ता मधि वरनन' भवि' यह जानौं । दीक्ष्या सोप्या जती सुनि की, भांवना तमक यह कथन की ॥ १२७१ ॥ संसकार उत्तिम अरु अर्थ, गरण पोषण दे श्रादि समस्थ । वरन्यौं है सव ही अभिराम, पुंडरीक द्वादसम नांम ॥ १२७२॥ 3 दोहा : १२६८ : १A वस्त । १२६६ : १ दशमां । १२७१ १ बरन । १२७३ : १ स्वरपद । १२७४ : १ पुन्य । Jain Education International जिह कारण अरु पुन्यते, सुरपद सो वरनन यामैं कियो, बहुरि नांम महापुंडरीक है, वरनन काररण पु'नि' देवांगनां पद प्रापत्ति कौ जेह ॥१२७४ ॥ कहि असीतिका चवदमौं, तामैं प्राछित वर्ण । कियो तिन्है वहु विधि नमैं, वषता लषि तिनु च ॥१२७५ ॥ अंग वाक्य अक्षर कहे, जे तिनुकै अनुसार । श्रव मुनिजन वरनन करें, ग्रंथनि मांभि अपार ॥ १२७६ ॥ २ भविक । ३ A सुरन । २ प्रापति । [ १४६ सुनि भर्म ॥ १२६५॥ सहु जांनि । गुन-षांनि ॥ १२६६ ॥ उपसर्ग । प्राप्त होय । तेरमौं जोय ॥१२७३ ॥ तामैं ऐह । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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