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________________ बुद्धि-विलास [ १४१ चौपाई : सोही वृति परि है संध्यानौ, रस- परत्याग चतुर्थम जांनौं । षट-रस मांहीं जो रस त्यागै, तिह दिन तासौं नहि अनुराग ॥११८८॥ सज्या श्रासन करें इकंत, सो विवक्त सज्यासन संत । बहुविधि काय- कलेस करत, ए षट तप है वाह्य षट- प्रकार श्राभ्यंतर कहिये, दोष लगें कौ प्राछित विनय करत गुरु लघु ह्व जैसौ, वयावरत करि गुर स्वाध्याय जु है पढन पढांवन, व्युतसर्ग जु अति कहिए ठाढें बैठें वंदन करहीं, षष्टम ध्यांन प्रातमिक धरहीं ॥११६१॥ दोहा : दोहा अरिल : ये वारह विधि तप तरणी, कही कछुक या मांहि । अव जो घट है आवसिक, सुनि भवि मन हरषांहि ॥ ११२ ॥ चौपाई : षट प्रावसिक धारियह मनां, सांमायक सतवन वंदनां । पडिकमरणां' श्रर प्रत्याष्यांन, बहुरि करै व्युतसर्ग-प्रमान ॥११६३॥ अव सुनिये भवि पंचाचार, दरसण ग्यांन चरित तप सार । पंचम वीर्याचार कहाय, सो मुनि पालै फुनि पालै दसलक्षरण धर्म, उत्तम षिमां वहरि श्रारजव सत्तिस ऊच्च, संजम तप रु त्याग समुच्च ॥११६५॥ श्रावयंचन - गुरण नवमौ कहैं, ब्रह्मचर्य ए दस गुण है । मन-वच - काय गुप्ति-त्रय पालि, गुरण छतीस ए लेहु सम्हालि ॥ ९१६६॥ मन वच काय ॥११६४॥ मारदव पर्म । Jain Education International महंत ॥११८६॥ चहिए । १९९३ : १ पडिकमरणौं । १९६५ : १ A उत्तिम । तेसौ ॥११६०॥ पांवन । अथ उपाध्याय गुन- वर्नन उपाध्याय के होत गुरण, अंग रु पूर्व पचीस । पढत पढावत है सकल, इम भाष्यो मुनि - ईस ॥११७॥ प्रथम अंग श्राचार सु वरनन जासमैं, है जतीसुरनि कौ श्राचार सु तासमैं | ताके पद सव सहस अठारा जांनिऐं, For Private & Personal Use Only श्रीगुर गरधर कथे तास उर प्रांनिऐं ॥११६८॥ सूत्रक्रतांग दुतिय तामै वरनन भिया, ग्यांन विनय छेदोपसथापन है क्रिया । www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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