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बुद्धि-विलास चहु दिसि चौसठि चवर' ढालंत२, सिंघासन परि प्रभु राजंत । भा-मंडल-दुति अति दमकंत, तीन छत्र सिर परि सोभंत ॥११७६॥ वहुविधि के वाजिन जु लाय,' धारि विमाननि मैं सुर२ प्राय ।
बुंदभि सवद करत गंभीर, ए वसु प्रातहार्य हुव वीर ॥११८०॥ दोहा : च्यारि अनंत चतुष्टये, दर्सन वीर्य सु ग्यांन ।
फुनि सुष ए सव गुन भये, षट-चालीस प्रमांन ॥११८१॥
अथ सिद्धां का गुन-वर्नन आठ अरिल: है संम्यक्त सु प्रथम ग्यांन फुनि जानिये,
___दर्सन वीर्य अनंत सूक्ष्मता मांनिऐं। अवगाहन सु अगुर लघु अव्यावाध हैं,
ए आठौं गुरण सिद्धनु तरणे अगाध हैं ॥११८२॥
__ अथ प्राचार्य-गुन छतीस वर्नन दोहा : आचारिज-गुर के सकल, गुरण भाषे छत्तीस ।
वंदौं मन-वच तन' तिन्हैं, हाथ जोरि नमि सीस ॥११८३॥ तप वारह परकार कौ, षट प्राभ्यंतर अन ।
षट-प्रकार है वाझय को, ऐ वारह विधि वैन ॥११८४॥ चौपई : षट-प्रकार तप वाह्य वतावै, अनसन उपवासादि कहावै ।
प्रामोदर्य सु अलप अहारा, सुनि वृत' परि संष्यांन विचारा ॥११८५॥ कर निदान आप मन माहीं, पुर मैं मुनि प्रहार कौं जांहीं। वैल सोंग गुड़ भेली धारै, जो न मिले तो लैं न अहारें ॥११८६॥
इन दै प्रादि निदान' जू मुनी करांहीं। माफिक किये मिलै तौ भोजन षांहिं ॥११८७॥
घरवै.
११७६ : १ चमर। २ ढलंत । ३ स्यंहासन । ११८० : १ ल्याय। २A स्वर । ११८१ । १० वीर्य । ११८३ : १ A missing | ११८५ : १०वित। ११८७ : १ मुनिस। २ निदान ।
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