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बुद्धि-विलास जवही ते जंजाल जगत कौं लागहीं,
कोई विरले सुभ गति तप करि पांगहीं ॥११६३॥ रस फुनि रुधिर सु मांस मेद अरु अस्थि है,
मज्जा शुक्र धात ए सात समस्त है। व सरीर इन मई ताहि तू मांनि के,
___ तजि अधर्म गहि धर्म जिनेस्वर जांनि के ॥११६४॥ दोहा : यह वरनन यातें कियो, असो असुचि सरीर ।
ताहि पाय करि धर्म तप, ज्यौं पावें भवतीर ॥११६५॥ अथ पंच-परमेष्टी के नाम प्रागें कहे तिन के गुन विधिवत वर्नन दोहा : पंचपरमईष्टीन के, गुन भाषे भगवंत ।
सो विधिवत वरनन कछुक, सुनिऐं सकल महंत ॥११६६॥ प्रथम तिर्थकर जगत-गुरु, जे अरिहंत कहात । तिन के षट-चालीस गुंन, सव जग मांहि विष्यात ॥११६७॥ ग्यांन तीन मति श्रुति प्रवुधि, जिन के जनमत होय ।
तिन सिवाय दसगुन जु ह्व, सो सुनिए भवि-लोय ॥११६८॥ छप्प : विनय-सेव निर्मल सुगंध' प्रति हूं स्वरूप तन ।
वज्र वृषभ नाराच प्रथम तिन को जु संहनन ॥ समचतुरश्र संस्थान रुधिर व स्वेत दुग्धसम । विन प्रमाण प्राकर्म-वचन भाषै प्रिय-हित यम ॥ लक्षिरण विजन जु सरीर मैं, इक सहश्र ह अष्टपरि ।
तिन मद्धि अठोतरसै लषिरण, नवसै विजन गिनहु धरि ॥११६६॥ सोरठा : उपजे केवल ग्यांन, तव ये अतिसय होत दस।
चतुरथ' ग्यांन कल्यांन, ताकी महिमां को कहै ॥११७०॥ कवित्त : होत च्यारचौं दिसि सौ सौ-जोजन सुभ षिकुनि,
च्यारि मुष होय करै गमन अकास मैं ।
११६६ : १. स्वगंध। २ जिम । १९७० : १ पंचमी
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