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बुद्धि-विलास चित राष सुस्थ' जु धारि मौंन, परसै न काहि नहि करै गौंन ॥८६६॥ चरचा न करै गुर देव धर्म, षसवोई सूंघत नांहि पर्म। दिन तीन जु नीक सील पालि, भोजन इक वेर करै सम्हालि ॥८६७॥ गोरस न षाय काजल करै न, गंध लेप न माला उर' धरै न। मुष निज गुर नृप कुल देव-देव, नहि लषं पारसी नहि लषेव ॥८६॥ फुनि अपनौं भी जो पीव होय, सिंह साथि वोलिऐ हू न कोय । वृष' तलि फुनि सोवत षाट नाहि, जप मंत्र हृदै हू नहि करांहि ॥८६६॥ जीमैं विन कांसी और पात्र, पातलि अंजुली मधि षुध्या' मात्र । तीनौं दिन तौ करिके सनांन, घर काज कर कोउ न आन ॥८७०॥ चौथै दिन घटिका छह प्रमान, दिन चढे तवें करिकै सनांन । भीट सव कौं भोजन करेय, पंचम दिन गुर फुनि देव सेव ॥८७१॥ निज मंदिर मैं करिये सनांन, नदी तलाव मति जाहु ांन । वहुरयौं अव सुनिये और वैन, नर नारि वहुरि ऐती करैं न ॥८७२॥
८६६ : १ सुसद्द ।
८६६ : १ वृिष। ८७० : १ क्षुधा। ८७१ : १ करि सुध।
२ सेय।
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