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________________ ६६] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [तृतीय एवं मनोरंजकताके साथ सुनाई थीं; और मुझसे खास करके प्रेरणा की थी कि 'आपको जा कर एक दफह उस भण्डारको ठीक तरहसे देखना चाहिये और उसमें जो कुछ अलभ्य तथा अपूर्व साहित्य हो उसको प्रकाशमें लाना चाहिये' इत्यादि । फिर जब मैं शान्तिनिकेतन गया और सिंघी जैन ग्रन्थमालाका कार्यारंभ हुआ तबसे तो, इस जेसलमेरके भण्डारके दर्शन करनेकी मेरी उत्कंठा बराबर बढती ही रही थी और उसके लिये किसी अच्छे संयोगके प्राप्त होनेकी, सदैव प्रतीक्षा किये करता था। क्यों कि इतःपूर्व वहांके निवासी किसी सजनसे मेरा कोई प्रकारका यत्किंचित् भी परिचय नहीं था और सर्वथा अपरिचित दशामें वहां जानेसे मेरा अभीष्ट कार्य सिद्ध हो सकेगा या नहीं इसकी मुझे पूरी शंका थी। इसलिये जब आचार्य श्रीजिनहरिसागरजी महाराजका वहां चातुर्मास सुना, तो मैंने उनसे इस विषयमें पत्रव्यवहार शुरू किया और उसके परिणाममें, उस भण्डारके देखनेका सुयोग प्राप्त होनेकी मुझे, उक्त रूपसे, उनसे सूचना मिली। इस सूचनाके प्राप्त होते ही मैंने अपने मनको एकदम जेसलमेर जानेके लिये एकाग्र कर लिया और अहमदाबादसे ता. ३० नवेम्बरको सवेरेकी गाडीसे अपने साथ ४-५ सुयोग्य सहकारी लेखक बन्धुओंको ले कर मैं जेसलमेरको रवाना हुआ। मारवाडके बाहडमेर स्टेशनपर उतर कर, वहांसे ११० मीलकी दूरी पर, रेलकी पटडियोंसे सर्वथा अस्पृष्ट ऐसी १६००० वर्ग मील भूमि पर शासन करनेवाली और जेसाणाके प्रिय नामसे राजपुतानेमें सुख्यात, जेसल भाटीकी बसाई हुई उस जेसलमेर नगरीमें, मोटर लॉरी द्वारा ता. १ डीसेंबरकी सन्ध्याको हम जा पहुंचे। वहां जाते समय मैंने सोचा था कि यदि ठीक सुविधा मिल गई, तो ज्यादहसे ज्यादह कोई एक महिनेमें मैं उस भण्डारका संपूर्ण निरीक्षण कर लूंगा । अतः उसी हिसाबसे साथका सब प्रबन्ध कर वहां पहुंचा था। परन्तु, वहां पहुंचने बाद एक महिना तो मुझे वहांकी परिस्थितिसे परिचित होने ही में और वहांके भण्डारके संरक्षकोंके साथ कार्यसाधक संपर्क साधनेमें ही व्यतीत हो गया। उसके बाद मेरा कार्य कुछ सरलतापूर्वक चालू हुमा। फिर तो ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता गया त्यों त्यों मुझे काम करनेकी अधिक सुविधा मिलती गई और पीछेसे तो जेसलमेरके बन्धुओंने इतना सद्भाव प्रकट किया कि जिससे जेसलमेर मुझे अपना आत्मीय स्थानसा लगने लगा और जिसकी मुझे खममें भी आशा नहीं हो सकती थी वैसी, अपने अभीष्ट कार्यमें मुझे सफलता प्राप्त हुई । ज्यों ज्यों मैं भण्डारमें सुरक्षित विशेष विशेष ग्रन्थोंका अवलोकन करता गया, त्यों त्यों भेरा वहां १०-२० या २५-५० ही की नहीं परन्तु छोटे बडे सैंकडों ही प्रन्थोंकी प्रतिलिपि करने-करानेका लोभ बढता गया। कोई १०-१२ सुयोग्य लेखकोंका अच्छा झुंड बिठा कर पूरे ५ महिनोंमें मैंने इस प्रतिलिपिका कार्य संपन्न किया। . जेसलमेर नरेशका अपूर्व सद्भाव जैसलमेरके इस साहित्यिक अन्वेषणके साथ, मैंने वहांकी कितनी ही अन्य ऐति "हासिक, भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितिके साथ सम्बन्ध रखनेवाली सामग्रीका भी अन्वेषण किया। इन सब बातोंका तो यहां पर परिचय देना प्रासंगिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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