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________________ वर्ष ] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [ ५ बना हुआ था। भारतवर्षके किसी भी स्थानके युवकोंने, इसके पहले कभी भी वैसा शौर्य और राष्ट्रप्रेम नहीं बताया जैसा अहमदाबादके युवकोंने इस आन्दोलनके समय Paatar | पुलीसकी केवल निर्दय लाठियों ही की नहीं, प्राणघातक गोलियोंकी भी इन युवकोंने कुछ परवा नहीं की। कई बत्तीस लक्षणे युवक इस राष्ट्रयज्ञकी वेदी में बलिदान हो गये । शहरमें महिनों तक हडताल चलती रही । मिलें भी प्रायः सब बन्ध रहती थीं और मजदूर लोक अपने अपने घर जा कर शान्त हो कर बैठ गये थे । जो कुछ दौड धूप और सरगर्मी दिखाई देती थी वह सरकारके नौकरोंमें और पुलीसके जवानोंमें थी । मेरे अन्तेवासी कुछ छात्र भी फना होनेकी तैयारी करके अपनी लेवा इस आन्दोलन में देनेको जुड गये । सी. आई. डी. वाले पुराने मित्र, मेरे स्थानकी खबर रखनेके लिये दिनमें दो-चार दफह चक्कर लगा जानेका कष्ट नियमित उठाने लगे। इससे मेरा मन और भी अधिक उत्तेजित होने लगा । प्रतिदिन सैंकडों की संख्या में जेल में जानेवाले बन्धुओंके अपूर्व उत्साहको देख कर, मुझे अपने आपको इस तरह उदासीन हो कर बैठे रहनेवाली अपनी - निष्क्रिय अवस्था पर ग्लानि होने लगी । इतनेमें मुझे जेसलमेरसे आचार्य श्रीजिनहरिसागरजी महाराजका एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने वहांके जैन ज्ञानभण्डारका अवलोकन करनेके लिये आनेका सादर आमंत्रण दिया और इस कार्य में अपनी ओरसे शक्य उतना सहकार देनेका सद्भाव प्रदर्शित किया । इन आचार्य महाराजके साथ मेरा कोई ४-६ महिनोंसे, इस बारे में पत्रव्यवहार चल रहा था । बीचमें चौमासेके पहले ही जेसलमेर जानेका मैंने विचार किया था, परन्तु उधर सिंघीजीसे मिलनेके लिये अजीमगंज तरफ जाना जरूरी था इससे अभी तक जानेका ठीक अवसर नहीं मिला था। अब चौमासा उतरनेको था और उसके बाद कुछ ही दिनमें आचार्य महाराज वहांसे अन्यत्र विहार कर जानेका विचार कर रहे थे, सो इन्होंने मुझे सूचित किया कि - 'यदि आपकी आनेकी इच्छा हो तो यह समय सबसे अच्छा अनुकूल रहेगा' इत्यादि । जेसलमेर के ज्ञानभण्डारको देखनेकी मेरी इच्छा-इच्छा ही नहीं उत्कट उत्कंठा - बहुत वर्षोंसे हो रही थी । जबसे मैंने गुजरात पुरातत्त्वमन्दिरकी योजना हाथ में ली तभीसे (सन् १९२० से ) मेरी अभिलाषा वहां जानेकी और उस भण्डारके प्रन्थोंको देखनेकी बराबर बनी रही थी । पाटण वगैरहके प्रसिद्ध ग्रन्थ संग्रहोंका तो मैंने बहुत कुछ अवलोकन कर लिया था परन्तु जेसलमेरके भण्डारके देखनेका कोई योग अभी तक प्राप्त नहीं हुआ था । सन् १९२८ में मैं जब जर्मनी गया और सप्टेंबर महिने में, हाम्बुर्ग में, सुप्रसिद्ध जैन साहित्यज्ञ डॉ. हर्मन याकोबीसे प्रत्यक्ष मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो बातचीत में उन्होंने खास करके मुझसे यह भी पूछा कि - 'आपने जेसलमेरके भण्डारको ठीक तरहसे देखा है या नहीं ?' इसके उत्तरमें मुझे उनसे यह कहते हुए बडा ही संकोचका अनुभव हुआ था कि - 'अभी तक मैं उस स्थानमें जा नहीं पाया हूं।' इस पर उन्होंने, सन् १८७४ में डॉ. ब्युल्हरके साथ किस तरह उस भण्डारमेंके कुछ ग्रन्थोंका बडी मुश्किलके बाद जैसा वैसा अवलोकन वे कर पाये थे एवं किस तरह उन ग्रन्थोंके रखनेकी वहां दुर्व्यवस्था उन्होंने देखी थी - इसकी बहुतसी बातें उत्सुकता ३.९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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