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________________ वर्ष] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [६३ विद्या भवन" के साथ जोड़ दिया गया है तो "सिरीझ" का प्रकाशन भी भा० वि० भ० का प्रकाशन गिना जायगा। ऐसी दशामें आपके श्रमका फल "सिरीझ" को ही मिले तो उसे भा० वि० भ० को मिला ही समझा जायगा। इससे मेरा आशय इतना खार्थगत नहीं है कि आप उस संस्थाकी मासिक पत्रिका या अन्य प्रकाशनोंमें कुछ भी सहयोग न दें। क्यों कि आपका लेखन - विषय बहुमुखी है; एक नहीं अनेक संस्थाएँ उससे लाभ ले सकती हैं। परन्तु मुख्यतया आपके परिश्रमका फल इस 'सिरीझ' को ही मिले मेरे लिये यह वांछनीय है। आप चाहे इसे "स्वार्थ" कहें तो शायद आपका कहना भी अन्याय न होगा। ___ मैंने श्रीमुन्शीजीके पत्रमें जो लिखा है उससे शायद आपको यह मालूम दे कि अभी सिरीझ चलानेकी जो बात हो रही है वह थोड़े समयके लिए अर्थात् आपकी मोजूदगी तक ही है। इस बारेमें मैं अपना आशय स्पष्ट कर देता हूँ। आप उचित समझें तो श्रीमुन्शीजीको भी यह बात कह सकते हैं। मेरा आशय यह है कि आपकी मोजूदगीमें ही आप ऐसा दूसरा समर्थ व्यक्ति तैयार कर लें या खोज लें, जो आपकी तरह ही सिरीझका काम चालू रख सके और जिस पर आपका हर दृष्टि से पूरा विश्वास हो और जिसे मैं भी अपने जीवनकालमें देख सकूँ। ऐसा हो तो आपका सिरीझके वास्ते उत्तराधिकारी ठीक हो गया। मेरे उत्तराधिकारियोंकी रसवृत्ति आप जानते ही हैं। इससे जो कुछ मुझको करनेका मन है और होगा वह एक मात्र आपके और आपके पसन्द किये हुए आगेके मुख्य कार्यकर्ताके भरोसे ही करना होगा। मैं समझता हूँ कि सिरीझका काम वेगसे बढ़ानेके साथ साथ आप अपने लायक आदमीको पा सकें तो संभव है कि आपके रहते ही फिरसे सिरीझकी विशेष स्थिरताके लिए सोच सकूँगा और कर सकूँगा। आपसे मैंने जो कहा था कि दूसरा ऐसा सहकारी रखिये जिससे आपका समय बचे और बोझ कम हो, उसका भीतरी आशय यह भी था कि आखिरको आप और मेरे रहते हुए, योग्य आदमी मिल जानेसे मैं आईन्दाके लिए विशेष विचार सिरीझके लिए कर सकूँ। बॉम्बे या भवनके साथ मेरा या मेरे वारिसोंका असलमें कोई सम्बन्ध नहीं है। जो कुछ है वह आपके कारण ही है। आपके बाद अगर जरूरत भी पड़ी तो मैं या मेरे उत्तराधिकारी शायद ही कोई सिरीझके कामके लिए बम्बई जाय । हकका लाभ लेने के लिए शायद कभी कभी पत्र-व्यवहार करें तो कर सकें, इससे ज्यादा तो नहीं। इससे मेरा विचार यह रहा है कि अभी तो आपकी मोजूदगी तककी ही बात रहे और इस बीचमें सुयोग्य व्यक्ति मिल जाने पर आप और मैं फिर बैठ कर नये सिरेसे सिरीझके लिए विशेष विचार कर लेंगे । आपकी तरह मेरा भी ध्येय सिरी. ज़की प्रगति और स्थिरताका है। हम लोग इधर रहते हैं इसलिए इधरकी किसी संस्थामें प्रत्यक्ष भाग लेने का भी अवसर सहज है; पर बम्बई तो दूरकी बात है। इस पर आप विचार करेंगे तो मेरा दृष्टिकोण ध्यानमें आ जायगा। __ आप और मुन्शीजी दोनों बाहर ही रहें ऐसी उम्मीद है। फिर भी दिन-ब-दिन जो परिस्थिति बिगड़ती जा रही है उसके ऊपरसे यह तो निश्चयपूर्वक कहना संभव नहीं है कि आप दोनों बाहर ही रहेंगे। जो कुछ होनेवाला है वह तो हो कर ही रहेगा । मेरा कहना तो इतना ही है कि आप पैसेकी तरफसे बेफिक्र हो कर अभीसे काम तेज और नियन्त्रित करें और मैं बाकीकी चिंता शिर पर ले कर बैठा हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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