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________________ ४६ ] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [ तृतीय कुटुंबमें मेल मिलना संभव है या नहीं ? अगर वैसा मेल नहीं मिला, तो पीछेसे कुटुंaa पेदा होनेकी परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है। तो जान बूझ कर ऐसी परिस्थितिकी आशंका कारणमें पैर रखना उचित है क्या ? सिंघीजीने इस परिस्थितिका विचार मेरे सामने भी प्रदर्शित किया और बोले - 'हमारा निजका विचार तो इसमें कोई प्रतिकूल जैसा नहीं है । न हम इस रूढ मतके पक्षपाती हैं कि गुजरातके साथ ऐसा कोई विवाह सम्बन्ध अभी तक नहीं हुआ इसलिये हमें भी नहीं करना चाहिये; और न हम व्यक्तिगत रूपसे पडदेके ही पक्ष में हैं । परन्तु हम सामाजिक बखेडे से दूर रहना चाहते हैं और इसमें हमें कुछ उस बखेडेके होनेकी आशंका है' इत्यादि । इस पर मैंने उनसे कहा कि - 'यदि और सब तरहसे यह सम्बन्ध करना आपको area चता हो, तो केवल रूढ मतके भयसे ही आप वैसा न करना चाहें, तो वह एक प्रकारकी आपकी बडी भारी कमजोरी कहलायगी । आप तो सुधारप्रिय व्यक्ति हैं । समाजमें बहुतसी रूढियां ऐसी चल रही हैं जिनसे समाजको कोई लाभ नहीं प्रत्युत बहुत कुछ हानि है । उनको दूर करनेका प्रयत्न करना विचारशील व्यक्तिया कर्तव्य है । आप तो जैन श्वेतांबर कॉन्फरन्सके अध्यक्ष भी बन चुके हैं और उस कॉन्फरन्सने कई दफह ऐसे प्रस्ताव किये हैं, जिसमें सूचित किया गया है कि - जैन समाज में एकता और विशालता स्थापित करनेके निमित्त, जहां पर धर्मकी दृष्टिसे कोई बाधा न आती हो, वहां पर परस्पर वैवाहिक और भोजन व्यवहारका सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये - इत्यादि । यदि आपके सम्मुख ऐसा प्रसंग उपस्थित है और आप उसमें किसी प्रकारका अनौचित्य नहीं समझते, पर उलटा अच्छा समझते हैं, तब आपका तो कर्तव्य हो जाता है कि समाजके रूढिप्रिय कुछ लोग विरोध भी करें तो उस विरोधकी उपेक्षा कर, सुधारके मार्गमें एक पैर आगे बढावें । आपके जैसे समर्थ व्यक्ति ऐसा करने पर समाजके अन्य सामान्य स्थितिके सुधारप्रिय जन भी कुछ कदम आगे बढनेकी हिम्मत कर सकते हैं।' इस प्रकारका बहुतसा विचार-विनिमय दो-एक दिन तक होता रहा । आखिर में फिर उन्होंने अपना निश्चित अभिप्राय देते हुए कहा कि - 'इस बातका विशेष विचार आप खुद चि० राजेन्द्रसिंहसे करें, यह मुझे अच्छा मालूम देता है । क्यों कि वे अब अपना हिताहित समझने और उसके मुताबिक काम करनेके लिये पूर्ण स्वतंत्र हैं। पहली शादीका सब व्यवहार करना हमारा कर्तव्य था । परंतु अब तो उन्हींको सब अधिकार प्राप्त होने चाहिये । हम तो सलाह मात्र देनेके अधिकारी हो सकते हैं । आप स्वयं उनके स्वभाव, शील, व्यक्तित्व आदिसे अच्छी तरह परिचित हैं ही। आप उनको उचित परामर्श भी दे सकते हैं और वे भी आपके आगे हमसे कहीं अधिक दिल खोल कर बातें कर सकते हैं। हमारा निजका उस कुटुंबके साथ कोई परिचय नहीं है और नाही हमें वहांके व्यवहारका कुछ ज्ञान है । यदि चि० राजेन्द्रसिंहको कुटुंब, कन्या आदि सब बातें पसन्द होंगीं और उनको यह सम्बन्ध अभीष्ट होगा, तो हमको उसमें कोई आपत्ति नहीं होगी । फिर इधरका समाज कुछ कहेगाकरेगा तो उसको हम संभाल लेंगे ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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