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________________ वर्ष ] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [ २५ उल्लेखित व्यक्ति उसी वख्त थे या नहीं ? आपने कभी इस विषयकी कोई चर्चा की हो, या इन लेखों का कोई impression लिया हो, या इनको पढा हो तो इन सब बातों को भी जानकी जरूरत है । मुख्तसर यह है कि इस सम्बन्धी जो कुछ सामग्री आपके पास हो या उपर लिखी हुई बातोंको जाननेके लिये जो कुछ जरूरत हो, उसे साथ ले कर आप अगर कृपा करके यहां पधारें तो बहुत अच्छा हो । शिलालेखोंका impression लेने के लिये जो सामान जरूरत हो उसे भी साथ लेते आवें । यहां करीब ४-५ रोज आपको लग जांयेंगे । बाबू रायकुमारसिंहजी, सेठ नरोत्तम जेठा, बाबू ताजबहादुरसिंहजी वगैरह कई सज्जन यहां उपस्थित हैं । सब कोईका अत्यन्त आग्रह है कि आप एक दफह जरूर यहां आवें । आनेके पेस्तर हमको तार या चिट्ठीसे मालूम कर दें, ताकि स्टेशन पर आदमी चला आयगा । साथ में बिस्तर लेते आवें । और शान्तिनिकेतन जैन चेयरके बारेमें भूरु बाबूका एक पत्र आया है उस संबन्धी भी विशेष आवश्यक विचार करनेकी जरूरत है । और यहां कुशल हैं आपका कुशल चाहते हैं । सं० १९९० मि० चैतसु० ७ गुरुवार । मेरा उदयपुर जाना विनीत बहादुरसिंह उस समय सिंघीजी के आमंत्रणानुसार मैं उदयपुर गया । श्रीशान्ति विजयजी "महाराज उदयपुरसे १०-१२ मील पर एक छोटेसे गांव में ठहरे हुए थे । सिंघीजी उसी दिन मुझे उनसे मिलानेके लिये वहां ले गये । यद्यपि एकाध दफह, बहुत वर्षों पहले, आबूरोडकी जैन धर्मशाला में उनके दर्शन करनेका मुझे मौका मिला था पर विशेष परिचय नहीं था। मेरे संपादित 'जैन साहित्य संशोधक' त्रैमासिक पत्रके वे ग्राहक थे और उसे बराबर मंगवाया करते थे । जैन इतिहास विषयक लिखी हुई मेरी दूसरी-दूसरी पुस्तकें भी उन्होंने पढ़ी थी और मेरे साहित्यिक कार्यले वे यथेष्ट परिचित थे एवं उसके प्रशंसक भी थे । इस बार जब उनसे मिलना हुआ तो वे बहुत प्रसन्न हुए और अपने पास पडा हुआ एक आसन उठा कर मेरे बैठनेके लिये स्वयं बिछाया और अपने समान पार्श्वमें, बडे आदरसे मुझे बिठा कर सुखसाता आदि प्रश्नसे मेरा अत्यधिक स्वागत किया । फिर एकान्तमें बैठ कर केशरियाजी तीर्थ के विष में बहुतसी बातें उन्होंने जाननी चाही और मैंने उनको अपनी जानकारीके मुताfue कितनीक ज्ञातव्य बातें निवेदन की । फिर तो प्रायः रोज ही ३-४ घंटे उनके पास बैठनेका प्रसङ्ग बना रहा । कुछ दिन बाद वे उस गाँव से उदयपुर शहरमें आये और हाथीपोलके बहार बनी हुई जैन धर्मशालामें ठहरे । भक्त लोगोंने उनका बडा स्वागत किया । शहरमें प्रवेश करते समय उनकी खास इच्छा रही कि मैं भी उनके साथ साथ चलूं । यद्यपि मुझे ऐसी भीडमें और धांधली में चलना पसन्द नहीं था पर उनके आग्रहके वश वैसा करना पडा । धर्मशाला में प्रवेश करने पर उन्होंने लोगोंको थोडासा मांगलिक प्रवचन सुनाया । कुछ भक्तोंने उनको बहुमूल्य कंबल ओढ़ाये जिनमें से पहला कंबल उन्होंने अपने हाथोंसे मेरे कंधेपर रख दिया । उनके आशी३.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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