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________________ वर्ष] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [२३ 'पूज्य पिताजीका लाइन ब्लाक हमें पसन्द नहीं आया। काम बहुत भद्दा हुआ है। मगर देर बहुत हो गई है इसलिये इस दफे तो इसीसे काम चला लेना होगा। मगर हम दूसरा फिरसे बनवावेंगे सो उससे लिख दीजियेगा वो चित्र हमें वापस दे जाय । __ 'प्रबन्धचिन्तामणि' की पुस्तक तैयार होते ही प्रेसमेंसे कुछ नकलें उनके अवलोकनके लिये भेजी गई जिसको देख कर वे बडे प्रसन्न हुए । ता. २९.७.३३ के पत्रमें उन्होंने इसकी सामान्य पहुंच लिखते हुए मुझे लिखा कि ... "सविनय प्रणाम. आपके तीन पत्र मिले। आखिरी पत्र ता. ८, जूनका मिला। उत्तरमें विलंबके लिये क्षमा करें । 'प्रबन्धचिन्तामणि' की चार पुस्तकें दो पार्सलोंमें आईं। प्रतियोंकी बाइंडींग व get up सबको पसन्द आई। एक दो बातें सूचित करनेकी हैं वे मुलाकातमें कहेंगें। विक्रयके लिये जितनी पुस्तकें भाई शंभूके यहां रखनी हों वे वहां रख कर बाकी सब यहीं भिजवा दें। आपके यहां आने पर मुफ्तमें भेजने की पुस्तकोंका लीस्ट तैयार करके यहींसे भेज दी जायगीं। बंबई में या और किसी जगह बेचनेके लिये रखवाना हो सो वहीं रखवा दें। प्रेसका बिल देख कर वापस भेजते हैं। मैनेजर निर्णयसागर प्रेसके नामका चेक १ रु. १००० का भेजते हैं आप उन्हें दे दीजिए । दूसरे चालू ग्रंथोंके फरमे हमारे फाईलके लिये हों तो आप साथ लेते आइये। ... आपका शरीर अब पूर्णरूपसे स्वस्थ हो गया होगा । कृपया अब शीघ्र ही इधर आनेकी व्यवस्था करें। यहां भी दो रोजके लिये ठहरनेकी आवश्यकता है । सो या तो यहां हो कर शान्तिनिकेतन जांय या सीधा वहां पहुंच कर पीछे यहां आ जाय । जैसा आपको सुविधा हो वैसा कीजियेगा।" सिंघी जैन ग्रन्थमालाका पहला ग्रन्थ प्रकाशित हुआ वह 'विश्वभारती-शान्तिनिकेतन' के नामसे अंकित हो कर प्रकट हुआ। इस ग्रन्थकी १ प्रति जब मैंने गुरु. देवको भेंट की तो उसे देख कर वे बहुत प्रसन्न हुए और ग्रन्थमालाके विषयमें अनेक ज्ञातव्य बातें पूछने लगे। इसके बाद जब कभी उनसे साक्षात्कार करने का प्रसंग आता, तो सबसे पहले वे ग्रन्थमालाके कार्यके विषयमें ही प्रश्न करते । जैन साहित्य, भारतीय संस्कृतिके प्राचीन इतिहासका एक बहुत बडा साधन · भण्डार है और प्राकृत, अपभ्रंश तथा राजस्थानी आदि भाषासाहित्यका वह एक अद्वितीय खजाना है इस बातका जब जब मैं उनके आगे वर्णन करता तब तब वे बडी उत्सुकताके साथ मुझसे कहते कि-'आप बहादुरसिंहजी सिंघी जैसे कोई और दो चार धनिक जैन व्यापारियोंको प्रेरणा कीजिए, और मुझसे कहें तो मैं भी उन्हें लिखू कि वे दो - चार लाख रूपये इकठे करें और इस प्रकारके जैन साहित्यके उद्धारका कार्य बडे वेगसे प्रारम्भ करें, इत्यादि । मेरे स्वास्थ्यकी शिथिलता रायपि इस तरह 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' और 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का कार्य 'शान्तिनिकेतनमें सुचारुरूपसे चल रहा था, पर धीरे धीरे मेरा स्वास्थ्य वहां पर बिगडता जा रहा था। बंगालके मेलेरियापूर्ण जल- घायुने मेरी प्रकृतिको शिथिल बना दिया और मुझे वारवार अस्वस्थताका अनुभव होने लगा। इसलिये शान्तिनिकेतनके स्थायी निवासकी जो भावना प्रारंभमें बलवती थी वह मन्द होती चली । सिंघीजीकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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