________________
अंक १]
शृंगार शत [२२३ षटा तूली पउढीइ चित्रसाली । कांता कंठिई सीतरक्षा विचाली । दीवा पासिं धूपवासिं विणोदइ । वीणानादिइं रात्रि पूरई प्रमोदिइं ॥ ९७ हिमबलिई सलिलइं थिरु थाहरी । हडहडइं हडबां हिव पाहरी । रयणि वाधइ बांधई बाकरी । जनमनोहर गोहुम मंजरी ॥ ९८ जासून राती रितुरहिं समाती । वनी वधू कुंकुम भाव भाती । करइ रली कुंदकली सुदंता । रमइ वली रागीय रंगि कांता ॥ ९९ सरस सालिं दालिहिं सालनां । सुरभि घीउ वडां घण घोलनां । जिमई जासक मंडक पांडसिउं । रहु रहिउ रमणी भणि छांडस्युं ॥ १०० पृथु पयोधर भार नितंबिनी । रिदयु नायकसिउं सुख संगिनी । उरि उरोज अणीअ नीसरइ । मयणभल्लि जिसी हिमु संचरइ ॥ १०१ भुज भुजिइं मुखिस्यउ मुखि संमिलइ । वयणि सिउं पय प्राणिउं संकलइ । उर उरिइं उदरोदरि पीडीइ । सुरतु आसनि दंपति मंडीइं ॥ १०२ हसमिसई हीयडउं मिलिवा भणी । दिन घणाइ ह आरति तू तणी । करि कुरंगीय संगमु ताहरु । जिम शमइ विरहानल माहरउ ॥ १०३
दशनु वसनि रातउ, दंतिसिउं कांतु खातु । रइ रसि वसि मातउ, भोग संभोगि रातउ । रहि रहि प्रिय वाणी, कामिनीनी न जाणी। हइ हइ सुविजाणी, तेतलई ते प्रमाणी ॥ १०४
वसंतवल्ली सवि मई विणासी । महाहिमं चित्ति इस्यउं विमासी । नाठउ सीयालउ हिव ओसीयालउ । दीठउ जिवारइ रितुराज चालिउ ।। १०५
॥ इति शृंगारशतं समाप्तः ॥
*
*
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org