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________________ १०] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [ तृतीय विभिन्न आचार-विचारोंके प्रति उदार दृष्टि, अपने विचारोंका स्पष्ट दर्शन और उन पर ढ रहने की मनोवृत्ति, बहुत बडे धनिक होने पर भी सब प्रकारके दुर्व्यसनोंसे संपूर्ण विमुखता, विद्या और कलाके प्रति उत्कृष्ट अनुराग, उत्तमकोटिकी संस्कारिता, आदर्श धार्मिक सहिष्णुता, समुचित सुधारप्रियता, मनःपूत कार्यमें उन्मुक्त उदारता, स्वीकृत कार्यको सर्वांगपूर्ण बनानेकी तत्परता - इत्यादि प्रकारके अनेक उच्च गुणों का उनमें समन्वय देख कर, मेरे दिल पर उनके व्यक्तित्वका बहुत ही गहरा प्रभाव पडा । मेरा कार्य स्वीकार और स्थान निर्णय यों तो मेरा स्वभाव बहुत ही संकोचशील तथा जनसंसर्गसे दूर रहने की आदत - वाला है । उसमें तथा बड़े गिनेजानेवालोंसे करनेकी लाषा तो मुझे प्रायः ही नहीं होती। अपने आप चलकर किसीके पास जानेकी या किसीसे संबन्ध बांधने की कला या वृत्तिका मुझमें प्रायः अभाव ही है । जिनके साथ स्वभाant निर्व्याज सुमेल नहीं हो सकता अथवा जिनके साथ समान शील- व्यसनवाला सख्य नहीं हो सकता उनके साथ होनेवाला मिलनप्रसंग क्वचित् ही मुझे रुचिकर होता है । बाबू श्री बहादुर सिंहजी से मिलनेके पूर्व, साधारण धनिकोंके या बड़े लोगों के प्रति जो मेरा स्वभावगत अभिप्राय बना हुआ है उसी अभिप्रायके साथ, मैं बड़े संकोच भावसे, उनसे मिलने गया था । परन्तु उनसे प्रत्यक्ष मिले बाद और दो दिन उक्त रीति से उनके साथ खूब दिल खोल कर बातें - चीतें करने बाद, मेरा मन उनके प्रति उन्मुक्तसा हो गया और उनके उक्त गुणान्वित व्यक्तित्व से आकृष्ट हो कर मैंने उनके अभिलषित पितृस्मारकके पवित्र कार्य में अपनी सेवा समर्पित करने की सहज इच्छा व्यक्त की । इस कार्यका प्रारंभ कहां और किस तरहसे किया जाय इसका जब विचार होने लगा तो सिंघीजीकी कुछ इच्छा कलकत्ते में उसके शुरू करनेकी थी कि जहांपर वे स्वयं भी कुछ सक्रिय भाग ले सकें । परंतु मेरी इच्छा स्वाभाविक ही शान्तिनिकेतनमें रह कर कार्यका प्रारंभ करनेकी रही जिसको उन्होंने मुक्तभाव से स्वीकार लिया । काम कैसे और क्या क्या किया जाय उसकी संक्षिप्त रूपरेखा भी बना ली गई और खर्चका अन्दाजा भी कर लिया गया। प्रारंभ में ३ वर्षके लिये, शान्तिनिकेतनमें "सिंघी जैन चेयर" की स्थापनाका कार्यक्रम निर्णीत किया गया और उसके लिये वार्षिक ६-७ हजार रुपयेका बजट बनाया गया । आनेवाले जुलाईके प्रारंभसे कार्यका प्रारंभ करना और मेरा शान्तिनिकेतन जा कर रहना प्रायः निश्चितसा हुआ । सिंघीजी में कार्य विषयक निर्णायक शक्ति बडी तीव्र थी । जो बात उनकी समझमें आ गई और उनको जंच गई, उसका तत्काल ही वे निर्णय कर डालते और अपना मत स्थिर कर लेते । दिनों तक किसी बातको सोचते रहना और उसके विषय में करना न करनाके फेरमें फंसे रहनेवाली दीर्घसूत्री मनोवृत्ति उनकी बिल्कुल नहीं थी । स्पष्टवादिता भी उनमें ऊंची कोटिकी थी । किसी भी विषय में वे अपना मतामत बडी स्पष्टताके साथ व्यक्त कर देते थे । बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी कि कोई भी व्यक्ति उन्हें भ्रम में नहीं डाल सकता था । जो कोई व्यक्ति अपनी चतुरता बतलाने के Jain Education International - · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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