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कवि आसिग विरचित जी व द या रास
गुजराती भाषानी एक प्राचीनतर पद्यकृति
[रचना संवत् १२५७ विक्रमाब्द] उरि सरसति आसिगु भणइ, नवउ रासु जीवदया-सारु । कंनु धरिवि निसुणेहु जण, दुत्तर जेम तरहु संसारु ॥ १ ॥ जय जय जय पणमउ सरसत्ती । जय जय जय दिवि पुत्थाहत्थी ।
कसमीरह मुखमंडणिय, तइं तुट्टी हउ रयउ कहाणउं । .. जालउरउ कवि वजरइ, देहा सरवरि हंसु वखाणउं ॥ २ ॥ पहिलउ अक्खउं जिणवरधम्मु । जिम सफलउ हुइ माणुसजंमु ।
जीवदया परिपालिजए, माय वप्पु गुरु आराहिजए ।
सबह तित्थह तरुवर ठविजइ, [जिम ?] छाही फलु पावीजइ ॥३॥ देवभत्ति गुरुभत्ति अराहहु । हियडइ अंखि धरेविणु चाहहु ।
धणु वेचहु जिणवर भवणि, खाहु पियहु नर वंधहु आसा।
कायागढ तारुण भरि, जं न पडहिं जमदेवहं पासा ॥ ४ ॥ सारय सजल सरिसु परधंधउ । नालिउ लोउ न पेखइ अंधउ ।
डुंगरि लग्गइ दव हरणि, तिम माणुसु वहु दुक्खहं आलउ ।
उज्जइ अवगुण दोसडइ, जिम हिम वणि वणगहणु विसालउ ॥५॥ नालिउ अप्पउ अप्पइ दक्खइ । पायहं हिहि बलंतु न पिक्खइ ।
गणिया लब्भहिं दिवसडई, जं जि मरेवउ तं वीसरियउ । दाणु न दिनउ तपु न किउ, जाणतो वि जीउ छेतरियउ ॥६॥ अरि जिय यउ चिंतिवि किरि धंमु । वलि वलि दुलहु माणुसजंमु ।
नथि कोइ कासु वि तणउं, माय ताय सुय सजण भाय ।
पुत्त कलत्त कुमित्त जिम, खाइ पियइ सवु पच्छइ थाइ ॥ ७ ॥ धणि मिलियइ बहु मग्ग जण हार । किं तसु जणणिहि किं महतार ।
किं केतउ मागइ घरणि पुत्रु, होइ प्राणी गेइ लेसइ । विहव ण वारहं पत्तगहं, बोलाविउ को सावु न देसह ॥८॥
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