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________________ वर्ष] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [७ भी मेरे कानों में उसी तरह गुनगुना रहे हैं। उसके बाद भी कई दफह उन्होंने अपना वह मनोभाव उसी तरह प्रकट किया था। - मैं तीन बजे बाद जा कर अपने बिछाने पर सो गया, पर मुझे ठीक तरह नींद नहीं आई । मैं उनके विचारों और भावोंका अपने मनमें पृथक्करण करता रहा । क्यों कि दूसरे दिन मुझे कुछ निश्चित विचार करना था और तदनुकूल सिंधीजीको उत्तर देना था। मेरा मनोमन्थन और कार्य निर्णय इसके पहले, जैसा कि मैंने ऊपर सूचित किया है, मेरा मन साहित्यिक कार्यक्षेत्रसे रहठ कर किसी अन्य कार्यक्षेत्रकी ओर खींचता जा रहा था। देशकी राजकीय परिस्थितिके अनावश्यक फंदेमें पड जानेसे अहमदाबादके पुरातत्त्वमन्दिरकी स्थिति अनिश्चित हो गई थी। जिस उत्साह, जिस ध्येय और जिस कार्यको लक्ष्य कर, मैंने उसके आचार्य पदकी सेवा स्वीकृत की थी, उसमें अब बहुत परिवर्तन हो गया था। वहां बैठ कर इच्छित कार्य करनेकी कोई गुंजाइश नहीं थी। अपने अभीष्ट कार्यका कोई श्रद्धास्पद सम्यक परीक्षक या प्रोत्साहक जहां न हो, वहां मेरे जैसे स्वाभिमानी और स्वयंनिर्मापकके लिये अन्य कोई वस्तु आकर्षक नहीं बन सकती। जैन समाजके एक बहुत बडे महन्त और उइंड आचार्यदेव बननेकी विशिष्टतर शक्तिका अपने में काफी भान और उपादान रखते हुए भी, जिस साहित्योपासनाकी आकांक्षाने मेरा वेषपरिवर्तन और जीवनपरिवर्तन करवाया और जिसीकी एकमात्र साधनाकी अभिलाषाने अपने ऐकान्तिक जीवनका समूचा प्रवाह बदलवाया, उसीकी उपेक्षा या अनुपयोगिताका भाव जहां मुझे दिखाई देवा मालूम दे, वह स्थान किसी भी तरह मुझे अभीष्ट नहीं लग सकता । उस समय तक यद्यपि मैंने उस स्थानसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर लिया था पर उसके बारेमें मनमें रस नहीं रहा था। इधर यह भी बात कभी कभी मनमें आ जाती थी कि-जिस विशाल साहित्यिक सामग्रीको प्रकाशमें लानेकी दृष्टिसे मैंने जीवनके पिछले २० वर्ष सतत परिश्रम किया और जिसको व्यवस्थित कर संपादित करनेके लिये योग्य अवसरके उपस्थित होनेकी माशा बान्धे बैठा हुआ था, उसकी उपेक्षा कर यदि इस प्रकार कार्यातरके क्षेत्रमें प्रवेश किया गया तो फिर वह सब सामग्री और वह सब परिश्रम व्यर्थ ही रह जायगा। ऐसे साहित्यके संपादन और प्रकाशनके कार्य में बहुत कुछ द्रव्यकी अपेक्षा रहती है, जिसको प्राप्त करनेके लिये धनिकोंको प्रसन्न करना चाहिये। धनिकोंको प्रसन्न करने के निमित्त उनकी इच्छाओंका अनुसरण और उनके आदेशोंका अभिवादन करना चाहिये। मुझमें इस कलाका सर्वथा अभाव होनेसे, स्वयं किसी धनिकके पाससे यथेष्ट आर्थिक सहायता प्राप्त करनेके कार्यमें मैं अपने आपको सर्वथा अयोग्य समझता रहा हूं। ऐसी स्थितिमें सिंघीजी जैसे साहित्यानुरागी और समर्थ धनिक, जब स्वयं चला कर मुझसे मनुरोध करते हैं और अपने चिरोपासित जीवनकार्यको फलान्वित करनेका आदरपूर्ण मामह करते हैं, तब फिर मुझे क्यों किसी अन्य नये कार्यक्षेत्रकी ओर मुडना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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