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________________ ६] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [ तृतीय पुण्यस्मृतिके उपलक्ष्य में, ज्ञान प्रसारका अथवा साहित्य - प्रकाशनका जो कोई एक सुन्दर और स्थिर कार्य करनेका मनोरथ वे वर्षोंसे कर रहे थे उसके विषयमें दिल खोल कर बातें कीं । इतः पूर्व अप्रत्यक्षरूपमें, इस विषयमें बन्धुवर पं० श्री सुखलालजीके माध्यमसे, उनकी इस इच्छाका बहुत कुछ ज्ञान मुझे था ही तथा उनको भी मेरे कार्य और जीवनका कितना परिचय मिल ही चुका था, इसलिये इस विषय को समझने- समझाने में हम दोनोंको कोई विशेष समय न लगा । वार्तालापका सारांश यह था कि1. मैं उनके नजदिक कहीं आ कर बैठूं और इस कार्यके संचालनका भार अपने ऊपर लूं; और उसके निमित्त जितना भी जरूरत हो उतना आर्थिक भार उठानेकी उन्होंने • अपनी उत्सुकता प्रकट की । इस विषय में जो बहुतसी चर्चा पण्डितजीके साथ पहले हो चुकी थी उसका भी सारा बयान उन्होंने सुनाया । उनके साथ होनेवाले इस प्राथमिक वार्तालाप में ही उनके और मेरे बीचमें एक प्रकारका मुक्त और अनौपचारिक● आत्मीय स्वजनके जैसा - सौहार्द भाव स्थापित हो गया । L कोई ४ घंटे तक उस दिन हमारा वह पहला वार्तालाप होता रहा । 'जैन साहित्य 'संशोधक' और 'पुरातत्त्व' आदि पत्रों में मेरे और पण्डितजीके जो संशोधनात्मक लेख आदि प्रकाशित हुए थे, उनका उनको परिचय था और जैन इतिहासकी बहुतसी गुत्थियों का भी उनको अच्छा ज्ञान था । बीचबीचमें इन सब बातोंकी भी चर्चा होती रही । इससे पहले ऐसे किसी जैन गृहस्थको मैंने नहीं देखा था जो उनके जैसी मर्मक और रहस्यकी बातोंकी गहरी जानकारी रखता हो । उनके साथ ३-४ घंटोंकी उस पहली ही मुलाकात में मुझे मालूम हो गया कि - सिंघजी बड़े संस्कारप्रिय और कलाविज्ञ पुरुष हैं । यद्यपि युनिवर्सिटीका अभ्यासक्रम उन्होंने कभी नहीं पढा था पर उनका अनेक विषयोंका ज्ञान बडे बडे पदवीधारियों से भी बहुत कुछ बढ-चढ कर था । भारतवर्षकी स्थापत्यकला और चित्रकलाके वे बड़े मर्मज्ञ थे । निष्क- विद्या (प्राचीन मुद्राशास्त्र ) के तो पूरे निष्णात थे । प्रसंगवश इस विषयका जब वार्तालाप चला तो उन्होंने अपने संग्रह किये हुए चित्र और शिक्कोंका वह खजाना भी थोडासा खोल कर बताया जो सारे भारतवर्ष में प्रथम कोटिके संग्रहोंमेंसे एक समझा जा सकता है । इस विषय में उनकी जानकारी और जिज्ञासा इतनी उत्कट थी कि उसे प्रदर्शित करते वे थकते ही नहीं । उस दिन सायंकालका भोजन आदि करके फिर हम बातें करने बैठे। उसमें वे इतने तल्लीन बने रहे कि बातें करते और चीजें दिखाते कोई रातके तीन बज गये। उन सब चीजोंको देख कर मैं तो आश्चर्यमुग्धसा हो रहा। मैंने कहा - 'बाबूजी ! आपके पास जो यह अमूल्य और अपूर्व संग्रह है उसकी कम-से-कम कोई छोटी-बडी सूचि तो तैयार कर आप छपवा दीजिये जिससे इस विषयके जिज्ञासुओं और अभ्यासकोंको इतना तो पता लगे किं अमुक चीज अमुक संग्रह है। आपके पास कई चीजें ऐसी हैं जो शायद दुनियामें कहीं नहीं हों ।' इसके उत्तर में बाबूजीने हंस कर कहा - 'इसी लिये तो हमने आपको बुलाया है । संग्रह करने का काम हमने किया है, इसे प्रकाशमें लानेका काम अब आप कीजिये ।' उनके सच्चे दिलसे निकले हुए इन शब्दों को सुन कर मैं अवाक रहा। वे शब्द आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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