________________
१६२ ] भारतीय विद्या
[ वर्ष ३
तुं क्यांथी आव्यो छे ?, हवे तुं क्यों जईश ?" ( गा० ४१ ) आना उत्तरमां पथिक पोते ज्यांथी आव्यो छे ते स्थळनुं वर्णन करे छे अने छेक छेला वाक्यमां पोते जे माटे, ज्यां जवानो छे ते पण जणावी दे छे. आ माटे रासकार, ६५मी गाथा सुधीनो भाग रोकी राखे छे. पथिक कहे छे 'हे' शशधरवदनि ! मारुं नगर 'सामोरु' छे, एमां रहेनारा लोको 'नागरिक' छे, त्यां मोटां मोटो महालयो छे कोई मूरख नथी, बधा जण पंडित छे. नगरमां फरो तो क्यांय मधुर प्राकृत छंदो सांभळवा मळशे, क्यांय वेदोने सांभळशो, क्यांथ अनेक रूपको द्वारा रचायेला रासो कहेवाय छे, क्यांय सुदयवच्छनी कथा, क्यांय नलचरित, क्यांय भारत, क्यांय रामायण - एम अनेक कथाओ ज्यां त्यां
चाय छे, क्या विविध वाद्यो वागे छे, क्यांय प्राकृत गीतो गवाय छे अने क्यांय 'चल चल' एम बोलती नर्तकीओ चालती रहे छे.' आ पछी तो रासकार 'सामोह' नगरना वेश्यावाडानुं वर्णन करतां गा० ४६थी ५४ सुधी पहोंची जाय छे अने पछी त्यांना उद्यानोनुं वर्णन करतां विविध वनस्पतिओना वर्णनमां आठ गाथाओ रोके छे. ए गाथाओमां जाणी वा अजाणी अनेक वनस्पतिनां मात्र नामो कही जाय छे अने छेवड़े 'ए उद्यानोनी छाया दश योजन सुधी पहोंचे छे' एम कही पथिकना नगरर्नु एक विशेष एंधाण आपी तेनुं बीजुं नाम पण रासकार जणावे हे : "तवणतित्थु चाउद्दिसि मियच्छि ! वखाणियइ, महियलि जाणियइ ।" - ( गा० ६५ )
मूलस्थाणु सुपसिद्ध अर्थात् 'हे मृगाक्षि ! ज्यांनुं तपनतीर्थ - सूर्य तीर्थ- सूर्यनो कुंड - विशेष वखणाय अने जे नगरनुं बीजं नाम 'मूलस्थाण' एवं सुप्रसिद्ध छे'. आम कही पथिक कहे छे के
" तिह हुंत हर्ड इक्किण लेहउ पेसियड,
संभारन्तरं वञ्चउं पहुआ एसियउ ॥ " - ( गा० ६५ )
अर्थात- 'त्यांथी कोई एके लेख - कागळ - मोकल्यो छे तेने लइने प्रभु - स्वामी द्वारा आदेश पामेलो हुं खंभात तरफ जाउं छु'.
नायिका 'खंभात' नुं नाम सांभळतां कहेवा लागी :
" रुवि खणडु फुसवि नयण पुण वजरिउ, भारत णामि पहिय तणु जजरिउ । तह मह अच्छा विरह उल्हा वयरु,
अहिय कालु गम्मियउ ण आयउ णिद्दयरु ॥ ६७
X
X
x
x
जिणि हउ विरहह कुहरि एव करि घल्लिया, अत्थलोहि अकयत्थि इकल्लिय मिल्हिया । संदेसडर सवित्थरु तुहु उत्तावलउ,
कहि पहिये पिय गाह वत्थु तह डोमिलउ ॥ ९२
अर्थात्- 'जराक वार रोईने आंख लुंछीने पछी नायिका बोलीः हे पथिक ! खंभातर्नु नाम लईलईने हुं तो जर्जरित थई गई, मारा विरहअग्निने ओलवनारो मारो स्वामी रहे छे. तेणे त्यां वधारे काल गुमान्यो छे अने ए निर्दय हजी पण आग्यो नथी. ' ६७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org