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________________ १५० ] भारतीय विद्या [ वर्ष ३ महावृत्ति, पंचवस्तु और शब्दांभोजभास्कर आदि अनेक टीकाग्रन्थ लिखे गये हैं; दूसरा गुणनन्दिकृत सूत्रपाठ जिसपर प्रक्रिया, शब्दार्णवचन्द्रिका आदि टीकायें मिलती हैं। पहले सूत्रपाठ में लगभग तीन हजार और दूसरेमें लगभग सैंतीस सौ सूत्र हैं । फिर भी दोनोंके अधिकांश सूत्र समान हैं, दोनोंका प्रारंभिक मंगलाचरण एक है और दोनोंके कर्त्ताओंका नाम भी टीकाकारोंने देवनन्दि या पूज्यपाद लिखा है, सिर्फ दूसरेको 'गुणनन्दि - तानितवपुः' विशेषण दिया गया है । ' और एक ही सूत्र - पाठसे यापनीयों, दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंके ही समान अपने अपने सिद्धान्तोंके प्रतिपादन करनेका दूसरा उदाहरण 'ब्रह्मसूत्र' का है जिसपर शंकर, निम्बार्क, मध्य, रामानुज और वल्लभ आदि पाँच छह आचार्योंने द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि सिद्धान्तोंका प्रतिपादन करनेवाले जुदा जुदा भाष्य लिखे हैं । उनके सूत्रपाठोंमें भी भिन्नता है । कई सूत्र ऐसे हैं जिन्हें एक मानता है, दूसरा नहीं मानता, और कईके शब्दों में भी न्यूनाधिक्य है । सर्वार्थसिद्धि टीका में उसके कर्त्ताने दो पाठान्तरोंका निर्देश किया है ।' यद्यपि ये पाठान्तर बिल्कुल साधारण से हैं, उनसे कोई बड़ा मत-भेद प्रकट नहीं होता है; फिर भी कुछ विद्वान् उनके कारण यह अनुमान करते हैं कि सर्वार्थसिद्धिसे पहले भी दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ रहा होगा, तभी तो ये पाठान्तर दिये गये हैं । अर्थात् उनके मत से इस सूत्रपाठ के कर्त्ता स्वयं पूज्यपाद नहीं हो सकते । : यद्यपि अभीतक वाचक उमाखातिका समय ठीक निर्णीत नहीं है; फिर भी मोटे तौरपर उनके और पूज्यपाद के बीच डेढ़ दो सौ वर्षका अन्तर अवश्य है । इस लम्बे समय में उनके तत्त्वार्थसूत्र और भाष्यकी बीसों प्रतिलिपियाँ हुई होंगी और उनपर छोटे मोटे टीका-टिप्पणग्रन्थ भी लिखे गये होंगे। इन प्रतिलिपियों और टीका-टिप्पणोंसे अनेक पाठान्तरोंकी सृष्टि हो सकती है और उन्हीं में से १ - देखो, 'जैन साहित्य और इतिहास' में 'देवनन्दि और जैनेन्द्रव्याकरण' शीर्षक लेख पृ० १००-६। २ - पहले अध्यायका १६ वाँ सूत्र - " बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ।" - अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः । दूसरे अध्यायका ५३वाँ सूत्र - औपपातिकचरमोत्तम देहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ' : "- चरमदेहा इति वा पाठः । १३- ये टीका-टिप्पण यापनीय विद्वानोंके ही होंगे, दिगम्बर - श्वेताम्बरोंके नहीं । सिद्धसेनने आठवें अध्यायके अन्त में 'अपरस्त्वाह' कहकर जो कारिकायें उद्धृत की हैं वे निश्वयसे किसी यापनीय - टीकाकी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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