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________________ अंक १ ] उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [१४९ करके जो दिगम्बरसम्प्रदाय के साथ बिलकुल ही मेल नहीं खाते थे अथवा जिन जिनमें कुछ त्रुटियाँ नजर आती थीं ।' सूत्रपाठ संशोधन और परिवर्तनका ऐसा ही एक उदाहरण पूज्यपादके ही जैनेन्द्र (व्याकरण) सूत्र - पाठका हमारे सामने है । तत्त्वार्थके ही समान 'जैनेन्द्र ' के भी दो सूत्र पाठ प्रचलित हैं । एक पूज्यपादकृत असली सूत्र-पाठ जिसपर १ - उपलब्ध टीकाओंसे मालूम होता है कि मूल सूत्र - पाठ में उनसे पहले ही बहुतसे पाठान्तर प्रचलित थे । इन पाठान्तरोंकी थोड़ी बहुत चर्चा प्रायः सभी टीकाकारोंने की है । सर्वार्थसिद्धि में दो ही पाठान्तरोंका उल्लेख है, राजवार्तिक में उससे कुछ अधिक पाठान्तरोंकी चर्चा है और सिद्धसेनकी वृत्तिमें तो बीसों पाठान्तरोंकी आलोचना है । जैसे - अ० २ सू० ९,१९,२४,३७,४९, अ० ५, सू० २,३, अ० ७ सू० ३,२३ आदि । अधिक पाठान्तर भाष्य प्रतियोंके कारण हुए जान पड़ते हैं । क्योंकि हस्तलिखित प्रतियों में मूल और भाष्य लगातार - रनिंग - लिखे रहते हैं । उनमें कहाँ तक सूत्र- पाठ है और कहाँसे भाष्य- पाठ शुरू होता है, यह जल्दी और सुगमता से समझ में नहीं आ सकता । इसलिए बहुत से सूत्र भाष्यमें मिल गये हैं और बहुत से भाष्य- वाक्य सूत्र समझ लिये गये हैं । इसके सिवाय लिपिकर्ताओंकी कृपासे भाष्यपाठ में भी बहुतसे पाठान्तर और गोलमाल होते रहे हैं । जैसे अ० ४ सू० ३८ के भाष्य में 'अजघन्योत्कृष्टा सर्वार्थसिद्ध इति' यह पाठ हरिभद्रको नहीं मिला। सिद्धसेनकी वृत्तिमें अ० ५, सू० २९का भाष्य ३ - ४ पंक्तियोंका है जब कि हरिभद्रकी वृत्ति में २५-२६ पंक्तियोंका । इसी तरह अ० २के अन्तिम सूत्रके भाष्यमें जहाँ सिद्धसेनको 'एभ्य औपपातिकचरमदेहासंख्येयवर्षायुर्भ्यः' पाठ मिला है वहाँ हरिभद्रको "एभ्य औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येयवर्षायुर्भ्यः” और पूर्वोक्त पाठ में 'उत्तमपुरुषा' न होनेसे सिद्धसेनने सूत्रमें ही उत्तमपुरुष होने न होनेका सन्देह किया है - " अतो भाष्यादेव सन्देहः ।” जरूरत इस बातकी है कि मूल और भाष्यकी अधिक से अधिक प्राचीन प्रतियाँ संग्रह की जायँ, उनमें जितने पाठ-भेद मिलते हैं वे सब छाँटे जायें और फिर उन सबपर टीकाओंकी पाठभेदसम्बन्धी चर्चाको सामने रखकर बारीकी से विचार किया जाय। इस प्रयत्नसे दोनों सम्प्रदायोंके जिन जिन सूत्रोंमें साधारण शाब्दिक अन्तर हैं, वे तो एक जैसे ही सिद्ध हो जायँगे और शेष सूत्रोंके विषय में यह पता लग जायगा कि उनमें से किस किसमें मतभेदके कारण भिन्नता हुई है और किस किसमें त्रुटियों के कारण उचित संशोधन या परिवर्तन किया गया है और कौन कौन सूत्र बिस्तार के अभिप्रायसे या जरूरत समझकर बढ़ाये गये हैं । विस्तार के अभिप्राय से बढ़ाये गये सूत्रोंकी चर्चा सिद्धसेनने तीसरे अध्यायके ११ वें सूत्रकी टीकामें की है - " अपरे पुनर्विद्वांसोऽति बहूनि स्वयं विरचय्यास्मिन्प्रस्तावे सूत्राण्यं • धीयते विस्तरदर्शनाभिप्रायेण ।" और इसी सूत्रका भाष्य-वाक्य है - "तत्र पंचयोजन - शतानि षड्विंशतिषट्चैकोनविंशतिभागा भरतविष्कंभः ।" इसपर लिखा है- "अपरे त्विदमेव भाष्यवाक्यं सूत्रीकृत्याधीयते ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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