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________________ १४६] भारतीय विद्या [वर्ष ३ हरिभद्रकी अधूरी टीका और सिद्धसेनगणिकी सम्पूर्ण टीकाके द्वारा श्वेताम्बरसम्प्रदायमें तत्त्वार्थ और उसके भाष्यको स्थान मिला। इन दोनोंका ही समय विक्रमकी ८-९ वीं शताब्दि है। पिछली दोनों टीकायें सर्वार्थसिद्धि ही नहीं अकलंकदेवकी प्रसिद्ध टीका राजवार्तिकके भी बादकी हैं और जैसा कि पं० परमानन्दजी शास्त्रीने सप्रमाण सिद्ध किया है। उनके कर्त्ताओंके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक मौजूद थे । इनके सिवाय ऐसा जान पड़ता है कि सिद्धसेनगणिके सामने और भी छोटी मोटी टीकायें रही होंगी; परन्तु संभवतः वे यापनीयोंकी होंगी जैसा कि सिद्धसेनकी घृत्तिके एक उल्लेखसे प्रकट होता है।' ' जहाँतक हम जानते हैं हरिभद्र और सिद्धसेनके समयमें उत्तर-पश्चिम भारतमें यापनीय सम्प्रदायके प्रत्यक्ष अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए उनका १- यह टीका हरिभद्रने अ० ५ सूत्र २३ तक लिखी थी और शेष यशोभद्र और उनके अज्ञात शिष्यने सिद्धसेनकी वृत्तिकी ही प्रायः नकल करके पूर्ण की है। शुरूके अध्यायोंमें भी यत्र तत्र सिद्धसेनवृत्तिके अंश मिलते हैं। २- देखो, हिन्दी 'तत्त्वार्थसूत्र'की भूमिका पृ. ५० । ३- देखो, अनेकान्त वर्ष ३, अंक ११में "सिद्धसेनके सामने स० सि. और राजवार्तिक'। ४-देखो, हिन्दी 'तत्त्वार्थसूत्र'की भूमिका पृ० ५१ । ५- देखो, आठवें अध्यायके अन्तिम सूत्रकी वृत्ति, जिसमें कहा है कि कुछ लोग सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेदको पुण्य प्रकृति मानते हैं, जो इष्ट नहीं है. -- सम्यक्त्व-हास्य - रति-धववेदानां पुण्यतामुशन्त्येके। न तथा पुनस्तदिष्टं मोहत्वाद्देशघातित्वात् ॥ . और फिर 'अपरस्त्वाह' कहकर नीचे लिखी पाँच कारिकायें दी हैं जिनमें उक्त प्रकृतियोंका पुण्यत्व प्रतिपादन किया है और भाष्यका 'सर्व चैतदष्टविधं कर्म पुण्यं पापं च' अंश उद्धृत करके सूत्रको भाष्यानुकूल बतलाया है रति- सम्यक्त्व-हास्यानां पुंवेदस्य च पुण्यताम् । मोहनीयमिति भ्रात्या केचिन्नेच्छन्ति तच्च न ॥ 'सर्वमष्टविधं कम पुण्यं पापं च' निवृतम् । किं कर्मव्यतिरिक्तं स्याद्यस्य पुण्यत्वमिष्यताम् ॥ 'शुभायुर्नामगोत्राणि सद्वेद्यं' चेति चेन्मतम् । सम्यक्त्वादि तथैवास्तु प्रसादनमिहात्मनः ॥ पुण्यं प्रीतिकरं सा च सम्यक्त्वादिषु पुद्गला। मोहत्वं तु भवाबन्ध्यकारणादुपदर्शितम् ॥ मोहो रागः स च स्नेहो, भक्तिरागः स चार्हति । रागस्यास्य प्रशस्तत्वान्मोहत्वेनापि मोहता ॥ .. इससे साफ समझमें आता है कि सिद्धसेनके सामने किसी यापनीय विद्वान्की ही कोई तत्त्वार्थवृत्ति थी जिसमेंसे उक्त कारिकायें उद्धृत की हैं और उस वृत्तिकारके सामने'सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं' सूत्र जिसमें है, ऐसा सूत्र-पाठ भी था। यह वृत्ति सर्वार्थसिद्धिसे पहलेकी भी हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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