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________________ अंक १] उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [ १४५ और शिक्षात्रतरूपसे इनको दो भागों में विभक्त नहीं किया । परन्तु दिगम्बरसम्प्रदाय के अग्रणी आचार्य कुन्दकुन्द अपने चारित्र - पाहुड़ में दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति, और भोगोपभोगपरिमाणको तीन गुणव्रत और सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और अन्तसल्लेखनाको चार शिक्षाव्रत बतलाकर सात शीलोंकी पूर्ति करते हैं । इनमें देशविरतिको कोई स्थान नहीं दिया और उसके बदले में सल्लेखनाको ले लिया, जो तत्त्वार्थ में सात उत्तरव्रतोंके अतिरिक्त है । श्वेताम्बरसम्प्रदाय के औपपातिकसूत्र में भी देशविरतिको सात शीलोंमें गिनाकर सल्लेखनाको अलग से सेवनीय' बतलाया है ।" इस तरह यह मत भेद स्पष्ट ही दो सम्प्रदायोंके मतभेदको सूचित करता है और पंडितवर्य जुगलकिशोरजी मुख्तारकी विवेचनाके अनुसार इसका कारण अपेक्षाभेद, विषयभेद, प्रतिपादकोंकी समझ आदि नहीं मालूम होता । दिगम्बरसम्प्रदाय कुन्दकुन्दका अनुयायी है; परन्तु आगे चलकर जब तत्त्वार्थसूत्र को भी उसने अपना लिया तब इन गुणत्रतों और शिक्षाव्रतोंके विषय में बड़ी गड़बड़ मच गई और पिछले ग्रन्थकर्त्ताओं में से किसीने कुन्दकुन्दका, किसीने उमाखातिका और किसीने दोनोंका अनुसरण किया । किसी किसीने दोनों के समन्वय करनेका प्रयत्न किया और आचार्य जिनसेनने तो सातकी जगह आठ शील मान लिये ! इस तरह सर्वार्थसिद्धि-सम्मत सूत्रपाठ में भी अनेक खटकनेवाली बातें मौजूद हैं । क्या टीकाकार यापनीयोंसे परिचित थे ? भाष्यके अतिरिक्त तत्त्वार्थकी जितनी टीकायें उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहली सर्वार्थसिद्धि है । इसका रचना - काल विक्रमकी छठी सदीका प्रारंभ है। संभवतः इसीके द्वारा दिगम्बर - सम्प्रदाय तत्त्वार्थसूत्र से परिचित हुआ । इसी तरह आचार्य १ - दिसविदिसमाण पढमं अणत्थदंडस्स वजणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिणि ॥ २५ ॥ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहीपुजं वत्थं सलेहा अंते ॥ २६ ॥ २ - आगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा पंच अणुव्वयाई तिष्णि गुणवयाईं चत्तारि सिक्खावयाई । तिष्णि गुणव्वयाई, तं जहा - अणत्थदण्डवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा - सामाइयं, देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहिसंविभागे । अपच्छिमा मारणंतिआ संलेहणा जूसणाराहणा । सू० ५७ । ३ - देखो, 'जैनाचार्यों का शासनभेद' पृ० ४१-६४। ४ - देखो, 'जैनसाहित्य और इतिहास' पृष्ठ ११५-२० ॥ ३.१.१९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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