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१३६ ] भारतीय विद्या
[वर्ष ३ पहलेका नहीं है और गुर्वावली-पट्टावली तो शायद उनके भी बहुत बादकी हैं। जिस समय टीका-ग्रन्थों के द्वारा उमाखाति दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य मान लिये गये, और उनको कहीं न कहीं दिगम्बरपरम्परामें बिठा देना लाजिमी हो गया, उस समयके बादकी ही उक्त पट्टावलियों शिलालेखों आदिकी सृष्टि है । विभिन्न समयोंके लेखकों द्वारा लिखे जानेके कारण उनमें एकवाक्यता नहीं रह सकी।
श्वेताम्बर-परम्पराकी जाँच लाभग यही हालत श्वेताम्बरसम्प्रदायकी पट्टावलियों आदिकी मी है । उनमें सबसे प्राचीन कल्पसूत्र-स्थविरावली और नन्दिसूत्र-पट्टावली हैं जो वीर नि० सं० ९८० (वि० सं० ५१०)में संकलित की गई थीं। उमाखातिके विषयमें इतना तो निश्चित है कि वे वि० सं० ५१० के पहले हो चुके थे। फिर भी उनमें उमास्वातिका नाम नहीं है । नन्दिसूत्र-पट्टावलीमें वाचनाचार्योंकी सूची दी हुई है परन्तु उसमें भी उमाखाति या उनके गुरु शिवश्री, मुण्डपाद, मूल आदि किसी भी वाचकका नाम नहीं है।
पिछले समयकी रची हुई जो अनेक श्वे० पट्टावलियाँ हैं उनमें अवश्य उमाखातिका नाम आता है, परन्तु एकवाक्यताका वहाँ भी अभाव है।
दुःषमाकाल-श्रमणसंघस्तोत्र (वि० की तेरहवीं सदी )में हरिभद्र और जिनभद्र गणिके बाद उमाखातिको लिखा है जब कि खयं हरिभद्र तत्त्वार्थभाष्यके टीकाकार हैं और जिनभद्रगणिने अपना विशेषावश्यक भाष्य वि० सं० ६६०में समाप्त किया था।
धर्मसागर उपाध्यायकृत तपागच्छ पट्टावली (वि० सं० १६४६)में जिनभद्रके बाद विबुधप्रभ, जयानन्द और रविप्रभके बाद उमास्वातिको युगप्रधान बतलाया है और समय वि० सं० ७२० । फिर उनके बाद यशोदेवका नाम है । इसके विरुद्ध देवविमलकी महावीर-पट्टपरम्परा (वि० सं० १६५६)में रविप्रभ और यशोदेवके बीच उमास्वातिका नाम ही नहीं है और न आगे कहीं है।
१-५० जुगलकिशोरजी मुख्तार इन्हें विक्रमकी बारहवीं सदीके बादकी बनी हुई मानते हैं।- स्वामी समन्तभद्र
२- कल्पसूत्र-स्थविरावली और नन्दिसूत्र-पट्टावलीमें सबसे बड़ी कमी यह है कि उनमें किसी भी स्थविरका समय नहीं दिया गया है। अन्य पट्टावलियोंमें जो समयक्रम मिलता है, वह बहुत पीछे प्रस्थापित किया गया है ।
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