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________________ १३० ] भारतीय विद्या [ वर्ष ३ ४ आचार्य वीरसेनने अपनी जयधवला टीका शक संवत् ७३८ ( वि० सं० ८७३ ) में समाप्त की थी। इसमें भी भाष्यान्तकी उक्त ३२ कारिकायें उद्धृत पाई जाती हैं' । इससे भी भाष्यकी प्राचीनता और प्रसिद्धिपर प्रकाश पड़ता है। इसके सिवाय वीरसेन खामी उमाखातिके दूसरे ग्रन्थ 'प्रशमेरति' से भी परिचित थे । क्योंकि उन्होंने जयधवला ( पृ० ३६९) में ' अत्रोपयोगी श्लोकः' कहकर प्रशमरतिकी २५ वीं कारिका उद्धृत की है । ५ आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने तत्त्वार्थसार (पद्यबद्ध तत्त्वार्थसूत्र ) में भी भाष्यकी उक्त ३२ कारिकाओंमेंसे २० कारिकाएँ नम्बरोंको कुछ इधर उधर करके ले लीं हैं और मुद्रित प्रतिके पाठपर यदि विश्वास किया जाय तो उन्होंने उन्हें 'उक्तं च' न रहने देकर अपने ग्रन्थका ही अंश बना लिया है । अमृतचन्द्रका समय निर्णीत नहीं है, फिर भी वे विक्रमकी बारहवीं सदीके बादके नहीं हैं और वे भी भाष्यसे या उसकी उक्त कारिकाओं से परिचित थे ! ६ अकलंकदेव और वीरसेन के समान उनसे भी पहले के आचार्य पूज्यपाद या देवनन्दिके समक्ष भी तत्त्वार्थभाष्य रहा होगा । यद्यपि उन्होंने सर्वार्थसिद्धिमें कहीं भाष्यका विरोध आदि नहीं किया है, फिर भी जब हम भाष्य और सर्वार्थसिद्धिको आमने सामने रखकर देखते हैं तब दोनोंके वाक्यके वाक्य, पदके १ - जयधवला में भाष्यकी जो उक्त कारिकायें उद्धृत पाई जाती हैं, उनके बाद जयधवलाकारने लिखा है - 'एवमेत्तिएण पबंधेण णिव्वाणफलपज्जवसाणं" इस वाक्यको देखकर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने ( अनेकान्त वर्ष ३, अंक ४ पृ० ३११ ) कल्पना की थी कि पूर्वाचार्य का कोई प्राचीन प्रबन्ध रहा होगा जिस परसे राजवार्तिक में भी वे कारिकायें उद्धृत की गई हैं। परन्तु, यह ' एत्तिएण पबन्धेण' पद जयधवलामें उक्त प्रसंग में ही नहीं, और बीसों जगह आया है और सब जगह उससे केवल यही सूचित किया गया है कि इतने प्रबन्ध या सूत्रभागके द्वारा या इतने कथनसे अमुक विषयका निरूपण किया गया । उक्त ३२ कारिकाओंके बाद आये हुए उक्त पदका भी यही अर्थ वहाँ ठीक बैठता है । दूसरा कोई अर्थ नहीं हो सकता । २ - तत्त्वार्थ भाष्य की वृत्तिके कर्त्ता सिद्धसेन गणिने 'प्रशमरति' को उमाखाति वाचकका ही माना है - "यतः प्रशमरतौ अनेनैवोक्तम्” “वाचकेन त्वेतदेव बलसंज्ञया प्रशमरतौ उपात्तम् ।" अ० ५-६ तथा ९-६ की भाष्यवृत्ति । प्रशमरतिकी १२० वीं कारिका 'आचार्य आह' कहकर श्रीजिनदास महत्तरने निशीथ - चूर्णि उद्धृत की है, और जिनदास महत्तर विक्रमकी आठवीं सदीके हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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