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________________ १८] भारतीय विद्या [ वर्ष ३ हम सभीका यह अनुभव है कि कोई सुसंगत अद्यतन मानवकृति हुई तो उसे पुराणप्रेमी नहीं छूते जब कि वे ही किसी अस्त-व्यस्त और असंबद्ध तथा समझ में न आ सके ऐसे विचारवाले शास्त्र के प्राचीनोंके द्वारा कहे जानेके कारण प्रशंसा करते नहीं अघाते । इस अनुभव के लिए दिवाकर इतना ही कहते हैं कि वह मात्र स्मृतिमोह है, उसमें कोई विवेकपटुता नहीं । यदेव किंचिद्विषमप्रकल्पितं पुरातनैरुक्तमिति प्रशस्यते । > विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः ॥ ( ६हम अंतमें इस परीक्षा-प्रधान बत्तीसीका एक ही पद्य भावसहित देते हैंन गौरवाक्रान्तमतिर्विगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमर्थतः । - raataभवं हि गौरवं कुलांगनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ॥ ( ६-२८) भाव यह है कि लोग किसी न किसी प्रकार के बड़प्पन के आवेशसे, प्रस्तुत में क्या युक्त है और क्या अयुक्त है, इसे तत्त्वतः नहीं देखते । परन्तु सत्य बात तो यह है कि बड़प्पन गुणदृष्टिमें ही है । इसके सिवायका बड़प्पन निराकुलाङ्गनाका चरित है । कोई अङ्गना मात्र अपने खानदानके नाम पर सद्वृत्त सिद्ध नहीं हो सकती । अन्तमें यहां मैं सारी उस वेदान्त विषयक द्वात्रिंशिकाको मूल मात्र दिए देता हूँ । यद्यपि इसका अर्थ द्वैतसांख्य और वेदान्त उभय दृष्टिसे होता है तथापि इसकी खूबी मुझे यह भी जान पड़ती है कि इसमें औपनिषद भाषामें जैन तत्त्वज्ञान भी अबाधित रूपसे कहा गया है । शब्दों का सेतु पार करके यदि कोई सूक्ष्म प्रज्ञ अर्थ गाम्भीर्यका स्पर्श करेगा तो इसमेंसे बौद्ध दर्शनका भाव भी पकड़ सकेगा । अतएव इसके अर्थका विचार मैं स्थान- संकोच के कारण पाठकोंके ऊपर ही छोड़ देता हूँ । प्राच्य उपनिषदों के तथा गीताके विचारों और वाक्योंके साथ इसकी तुलना करनेकी मेरी इच्छा है, पर इसके लिए अन्य स्थान उपयुक्त होगा । अजः पतंगः शबलो विश्वमयो धत्ते गर्भमचरं चरं च । योऽस्याध्यक्षमकलं सर्वधान्यं वेदातीतं वेदवेद्यं स वेद ॥ १ ॥ स एवैतद्विश्वमधितिष्ठत्येकस्तमेवैनं विश्वमधितिष्ठत्येकम् । स एवैतद्वेद यदिहास्ति वैद्यं तमेवैतद्वेद यदिहास्ति वेद्यम् ॥ २ ॥ स एवैतद्भवनं सृजति विश्वरूपस्तमेवैतत्सृजति भुवनं विश्वरूपम् । न चैवैनं सृजति कश्चिन्नित्यजातं न चासौ सृजति भुवनं नित्यजातम् ॥ ३ ॥ एकायनशतात्मानमेकं विश्वात्मानममृतं जायमानम् । यस्तं न वेद किटचा करिष्यति यस्तं च वेद किटचा करिष्यति ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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