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________________ अंक १] प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर [१३ और गुणवत्ताकी दृष्टिसे अन्य सभी जैन कवियोंका स्थान सिद्धसेनके बाद आता है) तो वह कथन आज तकके जैनवाङ्मयकी दृष्टिसे अक्षरशः सत्य है । उनकी स्तुति और कविताके कुछ नमूने देखिये स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् । अव्यक्तमव्याहतविश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥ समन्तमर्वाक्षगुणं निरक्षं स्वयंप्रभं सर्वगतावभासम् । अतीतसंख्यानमनंतकल्पमचिन्त्यमाहात्म्यमलोकलोकम् ॥ कुहेतुतऊपरतप्रपञ्चसद्भावशुद्धाप्रतिवादवादम् । प्रणम्य सच्छासनवर्धमानं स्तोष्ये यतीन्द्रं जिनवर्धमानम् ॥ स्तुति का यह प्रारम्भ उपनिषद्की भाषा और परिभाषामें विरोधालङ्कारगर्भित है। एकान्तनिर्गुणभवान्तमुपेत्य सन्तो यत्नार्जितानपि गुणान् जहति क्षणेन । क्लीबादरस्त्वयि पुनर्व्यसनोल्बणानि भुंक्ते चिरं गुणफलानि हितापनष्टः । इसमें सांख्य परिभाषाके द्वारा विरोधाभास गर्भित स्तुति है। क्वचिनियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते वचः, स्वभावनियताः प्रजाः समयतंत्रवृत्ताः क्वचित् । स्वयं कृतभुजः क्वचित् परकृतोपभोगाः पुन नवा विषदवाददोषमलिनोऽस्यहो विस्मयः॥ इसमें श्वेताश्वतर उपनिषद्के भिन्न भिन्न कारणवादके समन्वय द्वारा वीरके लोकोत्तरत्वका सूचन है । कुलिशेन सहस्रलोचनः सविता चांशुसहस्रलोचनः । न विदारयितुं यदीश्वरो जगतस्तद्भवता हतं तमः ॥ इसमें इन्द्र और सूर्यसे उत्कृष्टत्व दिखाकर वीरके लोकोत्तरत्वका व्यंजन किया है। न सदासु वदनशिक्षितो लभते वक्तविशेषगौरवम् । अनुपास्य गुरुं त्वया पुनर्जगदाचार्यकमेव निर्जितम् ॥ इसमें व्यतिरेकके द्वारा स्तुति की है कि हे भगवन् ! आपने गुरुसेवाके विना किये भी जगतका आचार्य पद पाया है जो दूसरोंके लिए संभव नहीं। उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः । न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरिरिस्ववोदधिः ।। इसमें सरिता और समुद्रकी उपमाके द्वारा भगवान्में सब दृष्टियोंके अस्तित्वका कथन है जो अनेकान्तवादकी जड़ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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