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________________ वर्ष ] वर्गस्थ सिंधीजीके कुछ संस्मरण [१०३ ग्रहणशक्ति जैसी उनकी तीव्र थी वैसी ही उनकी तर्कशक्ति भी तीव्र थी । इसलिये हर एक बातको समझने और खीकारनेमें उनके मनमें क्यों और कैसे ऐसे प्रश्न आते ही थे। मैंने अनेक बार देखा कि विना दलीलकी कोई भी बात माननेके लिए वे तैयार नहीं । फिर यह भी देखा कि सतर्क और युक्तियुक्त बात जंचनेपर उन्हें उसे माननेमें बिलकुल हिचकिचाहट भी नहीं होती थी। चाहे वह चालू सांप्रदायिक मान्यतासे विरुद्ध कितनी ही क्यों न हो। इस कारणसे उनका मानस बिलकुल असांप्रदायिक बन गया था । अत एव किसी अन्य संप्रदायके आचार या मन्तव्योंके साथ उनके मनमें सांप्रदायिक संघर्ष होते मैंने नहीं देखा । एक बार कहे कि 'दिगम्बर - श्वेताम्बरका मूर्तिखरूपकी मान्यताविषयक झगड़ा निपटाना सरल है । क्यों कि उभयमान्य अमुक अमुक प्रकारकी मूर्तिका निर्माण संभव है ।' एकबार तत्त्वज्ञानकी चर्चा चली जब कि एक बुद्धिशाली फिलोसोफीके M. A. व्यक्ति भी उपस्थित थे। सिंघीजीने कहा कि 'जैन संमत केवलज्ञान अगर सर्वग्राही है तो ईश्वरको व्यापक और सर्वज्ञ माननेवाले दर्शनोंके नजदीक जैन दर्शन इतना अधिक आ जाता है कि फिर तो विवाद मात्र शब्दका ही रह जाता है ।' उनकी यह बात सुनकर उस M. A. पास व्यक्तिने मुझसे कहा कि 'कहाँ व्यापारी मानस और कहाँ फिलोसोफीका गूढ प्रश्न? ऐसा सुमेल शायद ही किसी इतने बडे जैन व्यापारीमें हो।' तत्त्वज्ञानकी कितनी ही गहरी चर्चा क्यों न हो मैंने उनको उससे ऊबते कभी नहीं देखा, बल्कि कई बार तो वे बीचमें मार्मिक प्रश्न भी कर डालते । यहाँ उनकी शक्ति और रुचिका निदर्शक एक प्रसंग निर्दिष्ट करना पर्याप्त होगा। उन्हें नींदकी शिकायत थी। १९३९ का जून मास था। सिंघी सिरीजमें उस समय नई पुस्तक प्रमाणमीमांसा प्रकाशित हुई थी । सबेरे मैंने पूछा कि 'रात कैसी बिती?" उन्होंने कहा कि 'मजे की ।' 'क्या आज नींद आई ?' ऐसा जब मैंने प्रश्न किया तो उन्होंने कहा कि 'नींद तो क्या आती है ? पर रातको मजेमें प्रमाणमीमांसाकी प्रस्तावना पढ़ गया ।' मैंने कहा कि 'वह तो बहुत जटिल और कंटाला लानेवाली है । तो वे कहने लगे कि 'मैं तो एक ही आसनसे पूरी प्रस्तावना पढ़ गया और मुझे उसमें कोई अरुचि या कंटाला नहीं आया ।' सिंघीजीकी आदत थी कि कोई महत्त्वकी पुस्तक आई तो उसकी प्रस्तावना आदि पढ़ जाना । सिंघी सिरीजकी पुस्तकोंके लिये तो उनका यह सुनिश्चित क्रम था कि पुस्तक प्रकाशित हुई कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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