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१०२] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय सिंधीजीकी शिक्षा सिंधीजीका अंग्रेजी, बंगला, हिन्दी, उर्दू और गुजराती भाषाका गहरा और शुद्ध परिचय देखकर मेरी उनकी पढ़ाईके बारेमें जिज्ञासा हुई। मैं नहीं जानता था कि उन्होंने स्कूल - कोलेजकी तालीम कितनी ली है। मेरे प्रश्नके जवाबमें उन्होंने कहा कि 'मैंने तो हास्कूलकी तालीम भी पूरी नहीं की । मैं पढ़नेमें विशेष श्रम करता न था और ऐशआराम तथा खेल - कूदमें लगा रहता था । माता - पिताका अनुसरण करनेके लिये सबकभर कर लेता था, पर पढाईमें दत्तचित्त न था ।' तो फिर आपका इतना ज्ञान कैसे बढ़ा ? इसके जवाबमें उन्होंने अपना किस्सा सुनाया । वे बोले 'मेरे बड़े साले मुझसे पढ़ाईमें आगे रहते थे । एकबार मुझे चानक लगी कि मैं सालेसे भी पीछे रहूँ तो फिर बहनोईका बड़प्पन कैसे? इस चानकने मुझे इतना उत्तेजित किया कि फिर तो मेरा सारा ध्यान पढ़ाईमें लग गया। इसका फल यह आया कि मुझे अनेक विषय पढ़नेका शौख लगा, समझ भी बढ़ती गई और स्कूली पढ़ाईके अलावा अन्य विषयोंकी पुस्तकें भी पढ़ने लगा । और यह अध्यवसाय आज तक चालू है।'
धर्म और तत्त्वज्ञानकी शिक्षा सिंधीजीके पिता जिन्हें हम बड़े बाबूजी कहते थे वे जैसे कारोबारमें निष्णात थे वैसे ही जैनधर्म और जैन परंपरासे सम्बन्ध रखनेवाली बातोंमें भी निष्णात थे। और साथमें जैसे धार्मिक और श्रद्धालु थे वैसे ही ज्ञानरसिक भी थे । वे खुद ही अपने घरमें परिवारको धर्म और तत्त्वकी शिक्षा देते रहे । इससे सारे परिवारमें धार्मिकता और जिज्ञासाका पूरा वातावरण आज तक रहता आया है। सिंघीजीने अपने पिताजीसे ही जैन धर्म और जैन तत्त्वज्ञानकी खास शिक्षा पाई थी। वे जैसे जैन आचारके मौंको सीख चुके थे वैसे ही कर्मतत्त्व, जीवविचार, नवतत्त्व, नय - निक्षेप - अनेकान्त आदि तात्त्विक विषयोंको भी अधिकांश पिताजीसे सीख चुके थे। पर उनकी यह शिक्षा उम्रकी वृद्धिके साथ साथ बढ़ती गई और संप्रदायकी सीमाको लांघकर विस्तृत बनी । वे सिलोनी बौद्ध प्रचारक धर्मपाल अनगारिकके व्याख्यानोंको सुननेके लिये नियमित बौद्ध मन्दिरमें जाते।
और भी कहीं कोई धर्म और तत्त्वज्ञान आदि विषयों पर बोलनेवाला सुप्रसिद्ध विद्वान् आया तो वे उसके व्याख्यान भी सुनते । इतना ही नहीं पर यथासंभव उस उस धर्म और तत्त्वज्ञानकी प्रमाणभूत पुस्तकें भी पढ़ते थे। समझ और
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