SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [८७ उनका जीवन सब तरहसे संयत था। ४४-४५ वर्ष जैसी साधारण उम्रमें उनकी धर्मपत्नीका स्वर्गवास हो गया परन्तु उन्होंने फिरसे विवाह सम्बन्ध करनेका किंचित् भी विचार नहीं किया। योगमार्गकी तरफ उनकी अच्छी श्रद्धा और कुछ प्रवृत्ति भी थी। कुछ ध्यान और जापादि भी नियमित करते रहते थे। इतने बड़े धनवान होने पर भी उन्हें किसी वस्तुका व्यसन नहीं था। व्यसन था तो केवल साहित्यावलोकनका और कलात्मक वस्तुसंग्रहका । स्थूलबुद्धि और संस्कारशून्य मनुष्यकी संगति उनको बिल्कुल रुचिकर नहीं होती थी । विद्वानोंका सहवास उनको सदैव प्रिय लगता था। कलकत्ता युनिवर्सिटी, रॉयल एसियाटिक सोसायटी, बंगीय साहित्य परिषद् तथा कलकत्ता रीसर्च इन्स्टीट्युट आदि संस्थाओंके प्रमुख संचालक और साहित्यिक कार्यकर्ता आदि विद्वानोंसे उनका धनिष्ठ परिचय और खास मेलमिलाप था। शायद कलकत्ताके कुछ थोडेसे ही धनपति उनको ठीक जानते होंगे, लेकिन विद्यापति सभी बड़े विद्वान् उनको बहुत अच्छी तरह जानते थे। इसी विशिष्ट विद्यानुरागिताके कारण उनको 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का इतना अधिक आकर्षण था और इस 'ग्रन्थमाला' को उन्होंने अपने जीवनका एक विशेष प्रियतर कार्य मान लिया था। उनके ऐसे ज्ञानप्रिय आत्माके उत्साहके वश हो कर ही मैंने भी इस ग्रन्थमालाको अपना जीवनशेष कार्य बना लिया और इसकी प्रगतिमें अपनी सर्व शक्ति समर्पित कर देनेका साध्य स्थिर कर लिया। मेरा स्वास्थ्य, मुझे इस कार्यसे मुक्त होनेके लिये, वारंवार भयसूचक घंटी बजाता रहता है और वह प्रायः अब आखिरी नोटीश देनेकी दशाके भी नजदीक पहुंच रहा है, तब भी मेरा मन सिंधीजीके उत्साहको लक्ष्यमें रख कर, इससे निवृत्त होनेको तत्पर नहीं हो रहा है। यद्यपि, ग्रन्थमालामें जल्दी जल्दी जितने भी ग्रन्थ प्रकाशित किये जा सकें उतने प्रकाशित होते देखनेकी उनकी बडी उत्सुकता और उत्कंठा रहती थी; परन्तु साथमें, मेरा कृश शरीर, अत्यल्प आहार और बहुत अधिक परिश्रम देख कर, वे मुझे हमेशा उसके लिये रोकते रहते थे। मैं खुद ऐसा श्रम करूं उसकी अपेक्षा इस काममें अच्छे सहायक हो सके वैसे सहकारी तैयार करनेका उनका आग्रह रहता था और उसके लिये वे यथेच्छ खर्च करनेको तत्पर थे । उनका खयाल था कि मेरा ऐसा यह दुर्बल देह कितने दिन तक चल सकता है । इससे ग्रन्थमालाका कार्य मेरे पीछे भी ठीक चलता रहे वैसी व्यवस्था करने करानेकी मुझसे आशा रखते थे। मैं, अपने पीछे इस कामको ठीक तरहसे चलाता रहे ऐसा कोई योग्य उत्तराधिकारी विद्वान् रख जाऊं, इसके लिये वे मुझसे सदा आग्रह करते रहते थे। परन्तु विधिका विधान उससे विपरीत निकला । मैंने अभी तो उनकी उस आशाको सफल बनानेका कुछ प्रयत्न शुरू ही किया था, कि वे मुझे यों ही बीचमें छोड कर उस धामको चले गये जहांसे फिर कोई पीछा नहीं आता और मैं यहां बैठा हुआ उनके पुण्यस्मरणोंको, इस तरह लेखबद्ध करनेका, आज यह श्राद्ध कर्म कर रहा हूं। जिस परम पूजनीया माताकी सेवामें सदा हाजर रहनेकी उनके मनमें दृढ प्रन्थि बंधी हुई थी और जिसकी जीवनशेष क्रिया अपने हाथोंसे करके फिर यथेच्छ परिभ्रमण करनेकी एवं स्थाननिर्मुक्त होकर जहां दिल चाहा वहां निवास करनेकी, परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy