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________________ ८६] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [तृतीय - उनकी बौद्धिक और संयोजक शक्ति बडे उत्कृष्ट दरजेकी थी। उन्होंने अपने अकेले दिमाग और परिश्रमसे अपनी जमींदारी और कोलियारीके कारोबारको ऐसी उत्सम स्थितिमें पहुंचाया कि जिसको जान कर हरकोई चकित होता। उनकी व्यापारिक प्रामाणिकता ऐसी प्रतिष्ठित थी कि इंग्लैंडकी मर्केटाईल बैंकके हिन्दुस्थान विभागके डायरेक्टरोंकी बॉर्डने, उनको अपना एक डायरेक्टर बननेके लिये प्रार्थना की थी। किसी भी हिंदुस्थानी व्यापारीको आज तक यह सम्मान नहीं मिला था। देशके अन्यान्य प्रसिद्ध धनवानोंकी तरह, यदि उनके दिलमें भी यह बात आती, कि वे इधर-उधर हाथ मार कर, अपने पैर फेलावें और कंपनियों आदिके डायरेक्टरादि बन कर अपना नाम कमा; अथवा कोन्सीलों आदिकी उम्मीदवारीमें खडे रह कर, रुपया लुटा कर, राजकीय मैदानमें कदम बढावें; तो उनके लिये सब जगह बहुत बड़ा स्थान तैयार होता और देशके वे एक बडे अग्रगण्य व्यापारी एवं सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ पुरुषकी प्रतिष्ठा प्राप्त करते। __ यद्यपि बाहरसे वे बहुत बडे लक्ष्मीप्रिय लगते थे तथापि अन्तरसे वे बहुत ही अधिक सरस्वतीभक्त थे। यही एक विशिष्ट कारण था कि जिससे मेरा उनके साथ इतना धनिष्ठ स्नेहसम्बन्ध और साहित्यिक कार्यसम्बन्ध स्थापित हुआ। मैंने उनसे अनेकगुणा अधिक द्रव्य दान करनेवाले धनी व्यापारी देखे सुने हैं परन्तु दानमें जो विवेक उनका देखा वैसा अन्य किसीका मेरे जानने में नहीं आया । जिस किसी संस्था या व्यक्तिको उन्होंने दान दिया उसमें उनका विवेक- विचार सदा काम करता रहा। प्रसङ्ग और आवश्यकताको लक्ष्य कर उन्होंने हजारों-लाखों खर्च किये परन्तु अनावश्यक या अप्रासंगिक रूपमें उन्होंने एक पैसा भी जाने देना कभी पसन्द नहीं किया। जहां, जिस समय, जैसा विवेक बताना चाहिये उसमें वे कभी उपेक्षा नहीं करते। उनका जीवन ऐसे बीसों उदाहरणोंसे भरा हुआ है और जिनमेंसे अनेकोंकी मुझे प्रत्यक्ष जानकारी है लेकिन उनके उल्लेखकी यहां जगह नहीं है। पिछले वर्ष बंगालमें जो भयंकर अन्नकी महंगी फैली और उनके जन्मस्थान अजीमगंज-मुर्शिदाबाद आदिमें बिचारे गरीबोंकी जो प्राणहारक दुर्दशा होनी शुरू हुई, उसे देख कर उनका दिल कंपित हो गया और अपनी शक्तिभर उन्होंने कंगालोंको मुफ्त और गरीबोंको अल्प मूल्यमें धान्य वितरण करनेका प्रबन्ध, स्वयं अपने मनुष्यों द्वारा किया, जिसमें कोई ४ लाख रूपये उन्होंने खर्च खाते मांड दिये। परन्तु औरोंकी तरह न उन्होंने किसी फण्ड-मण्डलका आश्रय लिया लिवाया और न अखबारों में उसके आंकडे छपवा कर अपने नामका बाजा बजवाया। धर्म, समाज, साहित्य और देशके कार्यमें उन्होंने लाखों ही रूपये अपने जीवनमें खर्च किये परन्तु उसका उन्होंने कोई हिसाब नहीं रखा । मित्रों, कुटुम्बी जनों, सगों और आश्रितोंको भी उन्होंने बहुत कुछ द्रव्य दिया, परन्तु उसको कभी उन्होंने प्रसिद्धिके रूपमें प्रकट नहीं किया। प्राचीन कलात्मक एवं इतिहासविषयक सामग्रीका संग्रह करनेमें उन्होंने सबसे अधिक द्रव्यव्यय किया लेकिन उसको भी, अपना गौरव बतानेकी दृष्टिसे, उन्होंने कभी जाहिरमें रखना पसन्द नहीं किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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