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________________ २४४ 'वाचक गुण विन य रचित साहिहुकमि श्रीमंत्रीजी गुरू० २ आपि रहे रोहितासी साधु० । अंतेउर रक्षा भणी गुरू० २ जाणी मंत्रि वेसास साधु०॥ कासमीर साहियइ लियउ गुरू. २ अमर हूअउ रिपुराज साधु० । साहिनजरि अमृत वसइ गुरू० २ किम करइ तेह अकाज साधु० ॥ वैरि-वंद जीपी करी गुरू० २ आए श्रीलाहोरि साधुः । साहि सनमुख बोलाइया गुरू० २ सद्गुरु आए भोरि साधु० ॥ || ढाल ११, चतुरसेनही वाहलां-ए देशी ।। पदवीदान अने उपसंहार । दे आसीस सुगुरू तिहां, बइठे साहि हजूरइ रे । धरम-गोठि श्रीसाहिस्युं, करइ दयारस पूरइ रे ॥ श्रीजिनशासन चिर जयउ-आंकणी। मानसिंहनी वरणना, श्रीजी श्रीमुखि मंडी रे। बहुत बहुत इनकुं कह्या, पुनि तुह्म रीति न छंडी रे॥श्रीजिन०॥ २४५ कसमीरमारग दोहिलउ, जलि उपले करि पालइ रे । लंध्यउ संयम पालता, उपरि पडतइ पालइ रे ॥श्रीजिन०॥२४६ हुकमि हमारइ इनि तिहां, सर जलचरि छोडाइ रे। रहम करी तुम एहनइ, अपनी देहु वडाइ रे॥श्रीजिन०॥२४७ साहि हुकम गुरू मानीयउ, दूधमइ साकर वाही रे। पहिलउइ गुरू मन हुतउ, साहिइ ते वलि साही रे॥श्रीजिन०॥२४८ श्रीसाहिइ बलि पूछीयउ, मंत्रीसर बोलाइ रे। जिनशासनि कुन नाम छइ, जिनतइ अधिक भलाइ रे॥श्रीजिन०॥ २४९ तब मंत्रीसर वीनवइ, हम गछि देवे दीधउ रे । युगप्रधानपद पूरवइ, कहउ किनकुं अउ सीधउ रे॥श्रीजिन०॥ २५० नागदेव श्रावक हूअउ, तिणि अठम तप कीनउ रे। युग-प्रधान युगि कुण अछइ, तब देवइ सांनिधि दीनउ रे ॥श्रीजिन०॥ २५१ सोवन अक्षर तुझ करइ, प्रगट करेस्यइ सोइ रे। युग-प्रधान तुं जाणिज्यो जिम तिम नाम न होइ रे ॥श्रीजिन०॥२५२ जिनदत्तसूरिइ वाचीया, बीजइ किणही नदीठा रे। जांघृत स्वाद लीयउ नही, तेल हुवइ तां मीठा रे ॥श्री जिन०॥ २५३ अवर सरितां लगि भला, जां न चडइ करि एहा रे । अहरटमुख तां जोइयइ, जां वरसइ नवि मेहा रे॥श्रीजिन०॥२५४ तब श्रीसाहि हुकम करइ, युग-प्रधान जिनचंदो रे। आचारिजपद शिष्यकुं, दोउ करउ आनंदो रे॥श्रीजिन०॥ २५५ वली मंत्री साहिनइ कहइ, इहां अमारी पालीजइ रे। अमृत त्रिस भाजइ नही,जइ वली वली अमृत पीजइ रे॥श्रीजिन०॥२५६ खंभायत-मं(ब)दिर तणी, सागर-मछली छोरी रे। एक सालि लीला करउ, कहिज्यो जे करइ चोरी रे॥श्रीजिन०॥२५७ एक दिवस लाहोरमइ जीव सवे उगार्या रे। पाप करमथी पापीया, साहि हुकम सवि वार्या रे॥ श्रीजिन०॥ २५८ उच्छव दिनि साहियइ दीया, निज वाजा गजघाटइ रे। रायसिंह राजनइ विनवी, दानइ दारिद काटइरे॥श्रीजिन०॥२५९ साहम्मी घरि घरि दीयइ, इक चूनडी सुरंगी रे। पूगीफल नालेरस्यु, सेर खांड तिम चंगी रे॥ श्रीजिन०॥ २६० सधव वधू मिलि आपीयउ, रातीजागर नीकउ रे। फागुण-सुदि द्वितीयादिनई, करइ काउ श्रीजीकउ रे ॥श्रीजिन०॥२६१ युग-प्रधानजी थापीयउ मोटइ नंदि मंडाणइ रे। आचारिज मानसिंहनइ, मिलि नर नारि वखाणइ रे॥ श्रीजिन०॥ २६२ नाम दीयउ गछनायकइ, देखी सिंहनउ दावउ रे। श्रीजिनसिंहमूरि श्रीमुखइ, चंद्र लगइ जो चावउ रे॥ श्रीजिन०॥ २६३ पाठकपद दिवरावीयउ, श्रुतसागर मनि आणी रे। सुहगुरू श्रीजयसोमनइ, रत्ननिधानइ जाणी रे ॥ श्रीजिन०॥ २६४ वाचकपद गुणविनयनइ समयसुंदरनइ दीघउ रे। युग-प्रधानजीनइ करइ जाणि रसायण सीधउ रे॥श्रीजिन॥ २६५ याचक लोक भणी इहां, देवउ कोटी दानो रे। नवे गाम नव हाथीया, हय पांचसय प्रधानो रे॥ श्रीजिन०॥ २६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003400
Book TitleMantri Karmchandra Vanshavali Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1980
Total Pages122
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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