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________________ मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन ६६ इस पर की गई टीका इस बात का प्रमाण है कि मत्स्य में काव्यग्रंथों को समझने और समझाने का प्रयास हुआ था । मनीराम द्विज ने जो वर्णन दिया है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि राजधानी में ही नहीं वरन् राजपरिवार से संबंधित अन्य ठिकानों में भी काव्यंचर्चा चलती रहती थी और कवियों का सम्मान होता था। थानागाजी, तिजारा ग्रादि ठिकानों में सम्मान होता था, और वही के ठिकानेदार भी काव्यप्रेमी थे । जावली के राव भी इसी प्रकार विद्याव्यसनी रहे । यह टीका बहुत करीने से लिखी गई है । टीकाकार ने अपनी टीका का क्रम इस प्रकार बताया है— प्रथम मूलपदार्थ पुनि, तृतीय ग्रर्थ दृढ कीन । सबदाडंबर बाचियौ, काम करे परवीन || अर्थ सुदृढ़ विस्तार है, क्यों पचिये ता ठौर । न करनी होइ तब लषियो कवि सिरमौर ॥ एक उदाहरण लीजिए -- केस वर्ननं, प्रथम पंक्ति १. सूल- 'मरकत के सूत किधौं पन्नग के पूत किधौं, भंवर अभूत तम राज के से तारे हैं ।' २. अर्थ - 'मरकत मनि स्याम हैं, पन्नग सर्प, प्रभूत जैसे न भये हौंहि, तमराज अधिक अंध्यारो ।' ३. श्रर्थ दृढ़- सोई सब्दाडंबर जांनियो ग्रनिल व्योम तृरण बाल मरकतमरिण कवि प्रिया । 'कृष्णे नीलासित स्यामः', 'उरगः पन्नगो भोगी' 'ध्वांते गाढ़ेऽन्धतमसं अमरे० पहला टीकाकार गोपाल कवि माना जाता रहा है। इन कवि की टीका का समय मिश्रबन्धु, शुक्ल, चतुरसेन आदि इतिहासकारों ने १८६१ लिखा है किन्तु हमारी खोज में पाई गई मनीराम वाली टीका गोपाल कवि की टीका से भी ५० वर्ष पुरानी है । कवि ने इस टीका का समय इस प्रकार दिया है Jain Education International अष्टास व्यालीस हैं, संवत् मगसिर मास । कृष्ण पक्ष पाचे सुतिथि, सोमवार परगास || यह प्रति जो हमें मिली उसका लेखन भी गोपाल कवि की टीका से पहले ही हो चुका था। इसके लिपिकार थे 'भेरू सेषावत' और लिपिबद्ध करने का समय है संवत् १८७७ वि० श्रावण सुदि एकादसी, भानुवार मन[ धु]मांस । मुनि मुनि वसु ससि सुबुधि सुनि, यह संवत परगास ॥ ७ ७ 5 १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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