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अध्याय २ - रीति-काव्य
सिंगार रस लक्षण
रति थाई सिंगार रस, भेद वषानहु दोइ । इन संभोग वषानियें, विप्रलंभ इक होइ ।।
अन्य दो
अपने ही मन में रहे, लषं सषी जन ताहि। यों प्रछन्न प्रकास करि, भेद दोहि निर वाहि ।।
मुग्धा कौं सयन
कोरि मतन कोरिक जतन लहि नवला पिय सेज। चंचल चित चौंकत रहे. गहै न नेक मजेज ।।
अथवा
करि सौंह सखी जहं स्वाई गई तिहि सेजहि पायो पिया रस भीनों। चौकि परी चपला सीतहैं चऊ ओर लखै चित चैन न लीनौं । अति चाचरि के चुरियान उहू कर यौं गह्यौ नीबी कौं लाल नवीनी। लैं अति झूठ मनौ रवि कौं अरिबंदनि पाइ अलिंगन कीनौ ।।
मुग्धासुरत
काची काची कलिन सौं, अलि न करौ लग लाग । फूली फूली मालतिन, जौं लौं रहौ पराग ।।
मुग्धा को मान
करै सषी की सीष सौं, मुग्धा मानहि हानि । अति अजान मानौं नहीं, मानति पनि भयमान ।।
सुरतांत वर्णन
दीनौ जंघ थंभनि कौं सरस दुकुल कुच कुम्भनि कौं दीनौं हार आनद विधान है कानन कौं कुंडल अधर को तमोर दीनौ, करन कौं कंकन जुगल भासमान है ।। सूरत समर अंत रीझि रीझि चंदमुखी जंग जीति जोधनि को कीनौं सनमान है। पाछै परि रह्यौ कुटिलाई भर्यो कैशपास ताकौं पुनि उचित यों ही बंधन विधान है।
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