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अध्याय २ -- रोति-काव्य
मानते हैं । अभिनवगुप्त ने इस सिद्धांत को बहुत लोकप्रिय बना दिया, साथ ही रस तथा ध्वनि के संबंध का महत्त्व भी काव्य-शास्त्र में स्थापित कर दिया।
यदि इन सभी सम्प्रदायों पर एक विस्तृत दृष्टिपात किया जाय तो ये पांचों सम्प्रदाय दो श्रेणियों में आ जायेंगे
१. रस और ध्वनि-जो कविता की प्रात्मा पर अधिक बल देते हैं। इनमें काव्य का अंतरंग प्रमुख है।
२. शेष तीनों-इनमें काव्य के बहिरंग को प्रधानता दो गई है । रीतिकाल में कविता के बाह्य अंग पर अधिक ध्यान दिया गया। हिन्दी में 'रीति' शब्द मान्य हुआ, जैसे संस्कृत में अलंकार । हिन्दी में 'रीति' का प्रयोग उन ग्रन्थों के साथ हुआ जो 'लक्षण ग्रन्थ' होते थे। जिन ग्रन्थों में रस, अलंकार, गुण, दोष, नायक-नायिका भेद आदि का वर्णन होता था वे रोति-ग्रन्थ कहे जाने लगे। संस्कृत काव्य-शास्त्रियों ने रीति का जो अर्थ ग्रहण किया जिसका अभिप्राय विशिष्ट पद-रचना' होता था, वह हिन्दी में ग्रहण नहीं हुअा। हम हिन्दी में इस शब्द को इसके विस्तृत अर्थ में स्वीकार करते हैं । इसमें संदेह नहीं कि रीति शब्द को ग्रहण करने से हमारा ध्यान काव्य के बहिरंग को और अधिक जाता है, उसकी प्रात्मा अथवा अंतरंग की पोर इतना नहीं, और रीति काव्य के अंतर्गत जहां रस, ध्वनि प्रादि का वर्णन हुआ है वहां व 'रचना' की दृष्टि से स्वीकार किये गये हैं। जिस ग्रन्थ में रचना संबंधी नियमों का विवेचन हो उन्हें रीतिकाव्य की संज्ञा दी गई। संस्कृत में रीतिकार 'प्राचार्यत्व' की पदवी से विभूषित किये जा सकते हैं, कवित्व का उनमें प्रायः अभाव मिलता है। वास्तविक सिद्धान्तकारों को देखिए, उनमें काव्य नहीं मिलेगा, काव्य-निरूपण ही मिलेगा ! हिन्दो में इन दोनों का सम्मिश्रण हो गया। अतः हिन्दी में रीतिकाल के अंतर्गत दो प्रकार के कवि मिलते हैं- १. प्राचार्यत्वप्रधान २. शृंगारप्रधान । इस अध्याय में उन्हीं कवियों को लिया गया है जिनमें प्राचार्यत्व का प्राधान्य है।
मत्स्य के रीतिकारों ने हिन्दी में प्रचलित शैली का ही अनुगमन किया। काव्य-शास्त्र पर सर्वप्रथम हिन्दी लेखक कृपाराम' माने जाते हैं ।२ इनके पश्चात् गोपा, करनेस, सुन्दर आदि बहुत-से लोगों ने इस विषय पर लिखा,
१ हित तरंगिणी-संवत् १५६८ वि० । २ डॉक्टर भागीरथ मिश्र-हिन्दी काव्य शास्त्र का इतिहास ।।
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