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अध्याय २ - रीति-काव्य
निष्पत्तिः ।' इसमें रस के सभी अंग पा जाते हैं। इस 'रसनिष्पत्ति' पर अनेक विद्वानों ने विचार किया और चार वाद अत्यंत प्रसिद्ध हुए
(अ) भट्ट लोल्लट का उत्पत्तिवाद, (आ) शंकुक का अनमितिवाद, (इ) भट्ट नायक का भुक्तिवाद, तथा
(ई) अभिनवगुप्त का अभिव्यक्तिवाद। इनमें अभिनवगुप्त का सिद्धान्त बहुत माध हुना और काव्य-प्रकाश के रचयिता मम्मट, साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ तथा पंडितराज जगन्नाथ ने रसगंगाधर में इसी मत को माना है । एक प्रकार से अभिनवगुप्त का यह सिद्धान्त भारतीय साहित्य-शास्त्र में सर्वमान्य हो गया है।
२. अलंकार-सम्प्रदाय- इस सम्प्रदाय का सर्वप्रमख आचार्य रुद्रट था । अलंकारों का उल्लेख तो सबसे पहले भरतमुनि' ने ही कर दिया था परन्तु इसका सर्वप्रथम वैज्ञानिक विश्लेषण भामह ने अपने काव्यालंकार में किया। ये लोग अलंकार को ही काव्य की प्रात्मा मानते हैं। अलंकारों की संख्या भरत के बताये चार अलंकारों से बराबर बढ़ती रहो, और कालांतर में सैकड़ों पर जा पहुँची। हिन्दो के रीतिकाल में अलंकार-योजना का बहुत बड़ा हाथ रहा और बहुत-सी कविताएँ तो केवल अलंकार को छटा दिखाने भर को लिखी गईं। श्लेष, अनुप्रास आदि तो इतने प्रिय हुए कि कुछ लोग इनमें ही काव्य की इति-श्री समझने लगे। मत्स्य में भी यह प्रवृत्ति काफी दिखाई पड़ती है, किन्तु इसके साथ ही कुछ विद्वानों द्वारा अलंकार-निरूपण का प्रशंसनीय कार्य भी किया गया।
३. रीति-सम्प्रदाय- इस सम्प्रदाय को स्थापित करने वाले प्राचार्य वामन थे। इन्होंने 'रीति' को काव्य की आत्मा माना और कहा 'रीतिरात्मा काव्यस्य' । रीति क्या है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए इन्हीं प्राचार्य महोदय ने अन्यत्र कहा है 'विशिष्टा पद-रचना रीतिः' । एक प्रकार से रीति वालों ने काव्य के बाह्य पक्ष पर अधिक बल दिया। और हृदय पक्ष को अवहेलना की गई, आत्माभिव्यक्ति के लिए बहुत कम स्थान रह गया। रचना-चमत्कार ही काव्य का सर्वस्व बना दिया गया । काव्य में यह रचनाचमत्कार गुणों पर आश्रित रहता है और दोषों से उसका स्तर गिरता है,
१ भरतमुनि ने चार अलंकारों का उल्लेख किया है-उपमा, रूपक, यमक और दीपक ।
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