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मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन
२४५ ३. इन सुक्कों में से बहुत से हिन्दी-फारसी दोनों में हैं और उनमें बादशाही मोहर लगी हुई है । हस्ताक्षर की प्रणाली नहीं देखी जाती, मोहर ही लगाई जाती थी। जैपुर के परवानों में फारसी-हिन्दी दोनों भाषाएं हैं।
४. इतना समय होने पर भी अक्षर बहुत हो स्पष्ट हैं। घसीट का नाम नहीं । ऐसा मालूम होता हैं कि उस समय पत्र बहुत ही सावधानी के के साथ लिखे जाते थे । पत्रों की भाषा ब्रज है, कहीं-कहीं खड़ीबोली के रूप भी मिल जाते हैं।
५. पत्रों में सब प्रकार की सामग्री मिलती है--सरकारी, अर्द्धसरकारी, व्यक्तिगत । पत्रों में पद्य का प्रयोग भी होता था। कुछ राजा लोग भी अपने गुरु को पत्र लिखते थे । भरतपुर के महाराज ने भी अपने गुरु को युद्धस्थल से एक पत्र लिखा था।'
" महाराज रणजीतसिंह द्वारा अपने गुरु श्रीधरानन्दजी को लिखे पत्र का कुछ अंश
कीनी परमारथ पै स्वारथहू वन्यो नाहिं , गयो सब प्रकारथ सो कसे के वषानो जू। लन कहूयो दिल्ली अरु आगरी दोऊन पै , दई थून उलटी असो भयो यह वषानो जू । निसदिन पछितांऊ वा घरी को न पाऊं, हरिदेव सों रषाऊं अब अति ही खिसानो जू । दिसाने जू पेल्यो सो तो भयौ हूँ अकेलो अब ,
मेली कब होइगो सु नाही यह लषानो जू । यह पत्र भी उक्त गुसाई जी के पत्र-संग्रह से मिला; क्योंकि बहुत दिनों तक वह राज का गुरुद्वारा रहा।
गुसाई जी का पत्र-संग्रह बड़ा महत्त्वपूर्ण है जिसमें उस समय की धार्मिक तथा ऐतिहासिक अनेक बातों का पता लगता है। बड़े यत्न के साथ गुसाइयों के ये वंशज इन पत्रों को अपने पास सुरक्षित रखते रहे हैं तथा समय पर अपने अधिकारों की रक्षा हेतु इनका उपयोग भी किया है।
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