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________________ २४४ अध्याय ६- गद्य-ग्रन्थ इस पत्र के नीचे पुन: लिखा है 'सब को जै श्री कृष्ण बोहत बोहत लिखी है । साष्टांग दंडवद्वंचन । श्री गिर्धरजी महाराज यहां राजाषेरा ते आये हे सो काल ही फेर राजारा कू गये और बोहत प्रसन्न है ।' गुसाई श्रीरामजी का पत्र दीवान जवाहरलाल के नाम ('रणजीतकाल')' 'श्री हरदेवजी सहाय 'श्री गुसाई श्रीरामजी को पासीरवात श्री दीवान जवाहरलालजी कौं आपको ब्रह्मनि धरमग्य जानि के हम तै यह अहैवाल आपको लिष्यौ सो तुम याह वाचौगै आगे हम जैपूर कू जाते है तो आपनै बसी ठाकूर और हीरालाल आमिल और च्यारि भले आदमी भेजि धरम करम दै प्रानै हमको बुलाय लीनो सु बुलाए की सी राषो सो हमारो दो रूपैया रोजीना धरती दैन कैहै के आपने हमको बुलायो सो पाप धरमातमा हो सो करज काढ़ि काढ़ि अव ताई भोग लगायो सो..... ___ गाड़ी चारि छक रा दो भेजि दीजै जहा हम जाय तहा करि पावै ।। ....... हमारी चाकरी तौ कथा भजन है जौ कोऊ सुने तौ। प्राचीन सुक्का, रुक्का परवाने देखने पर कुछ बातें विशेष रूप से पाई जाती हैं १. सरकारी अर्द्ध-सरकारी पत्रों में विक्रमी संवत् के साथ हिजरी संवत् भी पाया जाता है । ३०० वर्ष पुराने कागजों में भी यह प्रवृत्ति मिलती है। २. देवता, ठाकुरजी का नाम केवल ऊपर लिखा जाता है। यदि पत्र के बीच में देवता का नाम कहीं पा जाय तो.......''इस प्रकार स्थान छोड़ देते हैं और ऊपर देवता का नाम लिखते हैं। १ श्री हरिदेवजी, भरतपुर, के वर्तमान पुजारी ने मुझे बहुत से सुक्के, पत्र, कविता आदि दिखाए जो १५०-२०० वर्ष पुराने हैं। उनमें उस समय के गद्य और पद्य के नमूने तथा कुछ ऐतिहासिक सामग्री भी मिलती है। ये पुजारी राजाओं के गुरु रहे हैं, किस प्रकार गुरु-परिवर्तन हुआ इस बात के भी प्रमाण मिले। जैपुर जाते हुए गुसाईजी को भरतपुर ठहरा लिया गया। फिर 'भोग-रोग' में कमी होने से उसकी शिकायत से भरा यह व्यंग्य युक्त पत्र है। यह विरक्ति इस कारण हुई कि गूसाइयों ने राजा के साथ युद्ध में जाने से मना कर दिया। बैरागियों ने साथ दिया इसका परिणाम यह हुआ कि भरतपुर के राजा वैरागियों के चेले हो गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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