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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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किया गया सिंहासन बत्तोसी का प्रथम अनुवाद है। इससे यह भी मालूम होता है कि लेखक ने इसे उर्दू की पुस्तक माना है। इसके द्वारा हिन्दी वालों को गद्य में लिखी एक अच्छी चीज मिल गई ।
४. इंशा अल्ला खां की लिखी 'रानी केतकी की कहानी' तथा इस अनुवाद की तुलना करने पर पता लगता है कि वह फारसी लिपि में लिखी गई हिन्दी की किताब थी और यह नागरी में लिखी हुई उर्दू की। इस पुस्तक की भाषा में उर्दू व्याकरण का ही अनुकरण किया गया है । यह कहानी इंशा की पुस्तक से कुछ ही दिनों बाद लिखी हुई गद्य पुस्तक है।
नागरी लिपि में उपलब्ध होने के कारण इसे मत्स्य के गद्य साहित्य में शामिल किया गया है।
'अकल नामा' भी गद्य में लिखा गया है । संवत् १८६६ के पास-पास लिखे गए इस गद्य ग्रंथ का नमूना देखें
'श्री मन्महागणाधिपतये नमः । श्री श्री सरस्वत्यै नमः। अथ अकल नामा लिष्षते । पातसाह अकबर बीरबल से कही । श्री भगवान हाथी की पुकार सुनी आप ही दौडे तो कोई चाकर नहीं हुता' । तब बीरबल कही कि फेरि अरज करूगा एक षोजा पातसाह के पोता कू रोज हजूर मैं लाउता । तासू बीरबल कही। जो पातसाह के पोता की सूरति माफिक मोम की सूरत बनाय । गहना पहरोइ हजूर में लाउ । और जानता ही हौद मैं गिराउ । सो षोजा ने वैसे ही किया । तब पातसाह देषत ही हौद में गिरे । सौ मोम की पुत्ली लेके बाहर आये ।' बीरबल कू पूछी यह क्या है। तब बीरबल कही । आपके चाकर नहीं थे । जो आप ही पोते के काढ़ने कू दौडे । सो जैसे ही ईस्वर की प्रीति भक्तन में होती है । सो गज के छुड़ायन के वास्ते आप ही धाए।' इस गद्य में स्पष्टतया खड़ी बोली के दर्शन हो रहे हैंअ. क्रिया-अरज करूंगा । भक्तन में होती है ।
___वैसे ही किया। नहीं थे। प्रा. कारक- बीरबल से, पोते के, पोता की, पातसाह के ।
इ. वाक्यों की बनावट। 'कू' आदि शब्द तब तक चल रहे थे। इस पुस्तक का निर्माण १८६६ वि. में महाराज बलवंतसिंहजी के कहने पर हुआ
दसरथ सुत रघुवंस मनि, व्यकटेस तिहि नाम । श्री वृजेन्द्र बलवंत के, करी सदां मनकाम ।।
भाषा में खड़ी बोली की झलक ।
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