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________________ नीति, युद्ध, इतिहास सम्बन्धी दमनी अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य के साथ उसी अवस्था में करने को तैयार थी जब पांचों दंड जीत लिये जायें। दमनी के ने ऐसा ही किया और दमनी को सन्तुष्ट किया । अन्त में प्रोत्साहन पर विक्रम २०४ श्रध्याय ५ - दमनी ने किया है तिलक सीस विक्रम के 1 दीनी है असीस यों पढ़ि के विरद कही सूरज त ज्यों तपौ अनेक साल जीजिये । प्रति ही प्रताप होउ श्रानंद में भीजिये | 1 Jain Education International नृपति विक्रमादित्य कों जयमाला ले साथ विषहरदंड समेत पुनि, रत्न डबा ले हाथ || अपनी दमनी सास ढिग, ठाड़ौ भयौ सु प्राय । कृपा तुम्हारी तं इहां, पांचों दंड मिलाय ॥ इस पर दमनी ने विक्रम को उपदेश दिया था "बड़ी वह छोटी यह दोउ एकसीनि धरि । इनपे कृपालु है घनेरी कृपा कीजिये ॥” इनदंडों के जीतने में विक्रमादित्य को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था | सिद्ध दंड की कठिनाई देखिये तौ महाराज सुनो षंमाइत देस माहि इक नगर बरन में । सौ पारापुर नगर सिंधु के पार तहां नृप सोमपाल है । तापुर माहि सोमसर्मा इक द्विजवर सौ श्रति बुधि विसाल है || तिहि ग्रहणी को नाम उमादे तेके त्रेसठ शिष्य पढ़त है । रहु एक सिष की इच्छा तनके चितमें भाव चढ़त है ।। तहां होय चौसठवे सिष्षों तुम करो सिद्ध कारन संपूरन । राजा कही भले यौ करियो दमनी निज ग्रह गमनी तुरपुर || प्रत्येक दंड के प्राप्त करने में ऐसी ही कठिनाइयां थी, किन्तु विक्रम ने अपनी चतुराई से पांचों दंडों को प्राप्त किया । इन दंडों को प्राप्त कराने में दमनी का बहुत योगदान रहा, उसी ने विक्रम को उपयुक्त स्थानों में जाकर दंड प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया । पांचों दंड प्राप्त करने पर ही दमनी प्रसन्न हुई और अपने हाथों से विक्रम के सिर पर टीका किया । प्रत्येक दंड को प्राप्त करने पर विक्रम दमनी को बुलाता और अगले दंड को प्राप्त करने का उपाय पूछता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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