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अध्याय ४ - भक्ति-काव्य
खर का सोर मूंस कूकर की देखा देखी चाली। तैसे कलुआ जाहिर भैरों सेढ मसानी काली ॥ दूध-पूत पाथर से मांगें जाके मुख नहिं नासा । लपसी पपड़ी ढ़ेर करत हैं वह नहि खावै मासा ॥ वाकं आगे बकरा मारें ताहि म हत्या जाने ।
लं लोहू माथे सौं लावें ऐसे मूढ़ अयाने ॥ ३. अनहद शब्द
नौ नाड़ी को खैचि पवन लै उर में दी। वज्जर ताला लाय द्वार नौ बंद करीजै ॥ तीनों बंद लगाय अस्थिर अनहद आराधे । सुरति निरति काम राह चल गगन अगाधै । सुन्न सिखर चदि रहै हृढ़ जहां प्रासन मारे।
भव चरनदास ताली लगे राम दरस कलमल हारे । ४. सतगुरु शब्द---
सतगुर मेरा सूरमा, करै शब्द की चोट । मारे गोला प्रेम का, ढहै भरम का कोट । मैं मिरगा गुरु पारधी, शब्द लगायौ बान ।
चरनदास घायल गिरे, तन मन बीधे प्रान ।। ५. कबीर वाला जल-कुंभ प्रकरण
जैसे जल में जल कुंभ बस जल भीतर बाहर पूरि रह्यो है। तैसे जल में जल पाला बंध्यो जब फुटि गयो जल प्राय भयौ है । ऐसे वह जग में व्यापि रह्यौ किनहूँ कर लोचन नांहि गह्यौ है।
चरणदास कहै दुई दूरि करौ सगरौ जग एकहि डोर गुह्यौ है ।। ६. तीर्थ
मकर तजं तो मथुरा मन में, कपट तजै तो कासी ।
और तीर्थ सबही जग नाथा, नाहिं छूटि जम फांसी ।। इनके अतिरिक्त मुद्रा, अष्टकमल, निरंजन, साहब, नाम, शब्द आदि निर्गुण संतों की सभी बातें इनके ग्रंथों में मौजूद हैं।
सहजोबाई और दयाबाई दोनों सदा गुरुदेव की सेवा करती रहीं। इनका जन्म १७७५ के आसपास हुआ होगा। इनके ग्रन्थों में से 'विनय-मालिका' को कुछ लोग चरणदासजी के किसी अन्य शिष्य, दयादास का लिखा मानते हैं।
सहजोबाई की कविता भी निर्गुण को दृष्टि से उसी प्रकार की है। १. गुरु
हरि किरपा जो होय तो, नाहीं होय तो नाहि । पै गुरु किरपा दया बिनु, सकल बुद्धि नहिं जाहि ॥
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