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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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यमराज ने गंगाजी को पत्र लिखा, किन्तु गंगा ने उत्तर में लिख भेजा कि
"पैज यही पूरन प्रतम्या मन मेरै भई ,
पातकी तिराऊंगी तो लोक जस पाऊंगी।" कुपित हो कर यमराज ने विष्णु भगवान को पत्र लिखा । विष्णु ने भी जवाब दे दिया
तेरिन मेरिन औरन की कहि पाछी बुरी नहिं कान धरै है।
विष्णु भनें जमराज सुनों नहिं गंग के सामने पेस पर है ।। और शिवजी ने भी फरियाद किये जाने पर कुछ ऐसा ही उत्तर दिया
येरे जमराज सुरसरिता के समूह गुन , कौन कहै तो मौं तमाम के अदंगा कौ। बावरौ भयौ है भूल दीरघ गयौ है कैसे , ससै छयो है सुन कौतुक अभंगा को ।। कहै परसाद हम सीस धरि राखी ताही , जैसें सिवराज समुझाय सुरसंगा को। पावक परस अति जंत्र होत भंगा जिमि ,
पातिक पतंगा होत नाम लेत गंगा को ।। पौर इसके उपरान्त अनेक छंदों में गंगा की स्तुति और उनका महत्त्व बताया गया है।
मत्स्य प्रदेश में दुर्गा-उपासना भी अनेक रूपों में होती रही है और यहां के कई कवियों ने देवी की प्रार्थना विविध छन्दों में लिखी है। दुर्गा सम्बन्धी कुछ संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद भी हुए जैसे कवि कलानिधि का किया हुअा दुर्गासप्तशती का अनुवाद जो 'दुर्गामहात्म्य' के नाम से प्रचलित हुअा।' अलवर के प्रसिद्ध कवि उमादत 'दत्त'२ ने कालिकाष्टक नाम से बहुत हो उग्र भाषा में एक ग्रन्थ लिखा । कहा जाता है कि इस माष्टक के द्वारा कवि 'मारण' योग में सफलता प्राप्त कर सके थे। दो कवित्त देखें
तोरि डारु दशन मरौरि डारु ग्रीवा गहि, फौरि डारु लोचन विलम्ब न विचारिये।
१ यह प्रसंग अनुवाद नामक अध्याय के अंतर्गत लेना उपयुक्त होगा क्योंकि 'दुर्गा महात्म्य'
एक अनूदित ग्रंथ है। २ महाराज शिवदानसिंहजी के दरबार में इनका बहुत आदर था। यह रौद्र रस की कविता विशेष रूप से करते थे। यह अष्टक बहुत कोशिश करने पर अलवर नरेश के संग्रहालय में ही मिल सका था।
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