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________________ मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन रस रह केलि रसनायक करभाई जेव , प्रेम चतुराई वह गोपिन चितारिवौ । देह नियराई सब भांतिन सुहाई सोब , मोहि क्यों बनत ऊधो ब्रज को बिसारियो । इस पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ बातें १. इस पुस्तक के दो अंश हैं—पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्ध में ऊधव ब्रज में ही रहते हुए गोपियों की बातें सुनते हैं और उत्तरार्द्ध में गोपियों का संदेश लेकर कृष्ण के पास जाते हैं। २. विरह-विलास में सगुण-निर्गुण के वाद-विवाद का प्रपंच नहीं है और न कवि द्वारा सगुण का प्रतिपादन करने की चेष्टा की गई है। यह तो वियोग से भरी काव्य-प्रतिभा है जो भक्तों का मन मोह लेती है । ३. सम्पूर्ण पुस्तक में दोहा-कवित्त अथवा दोहा-सवैया का क्रम चलता है। दोहे में एक बात कही जाती है और इसी बात की व्याख्या या स्पष्टीकरण कवित्त अथवा सवैये द्वारा होता है। ४. कविता उच्च कोटि की है और भाव की दृष्टि से गोपियों की मानसिक अवस्था का हृदयग्राहो चित्रण करती है। रसरासि पचीसी-यह पुस्तक भी भ्रमरगीत से सम्बन्धित है। पुस्तक को समाप्ति पर इसका नाम 'उद्धव पचीसी' लिखा गया है । इसके रचयिता रसरासि हैं और सम्वत् १६२५ में ब्रजेन्द्र महाराज के पठनार्थ इस पुस्तक की प्रतिलिपि की गई थी। 'रसरासि' कवि का उपनाम प्रतीत होता है। मूलरूप में यह पुस्तक अलवर-नरेश के लिए लिखी गई थी। इस पुस्तक में ८॥ पत्र हैं और २५ कवित्त हैं । कविता उत्तम कोटि की है। सर्व प्रथम कृष्ण उद्धव को जाने के लिए कहते हैं परम पवित्र तम मित्र हो हमारे ऊधी. अंतरविथा की कथा मेरी सुन लीजिये । ब्रज की वे बाला जपें मेरी जयमाला बढी , विरह की ज्वाला तामै तन मन छीजिये । मेरो विसवास मेरी पास रसरासि मेरे , मिलवे की प्यास जानि समाधान कीजिए। प्रीति सों प्रतीत सों लिषी है रसरीतिन सों, पत्रिका हमारी प्राण प्यारिन को दीजिए। पत्र में लिखा था निर्गण का उपदेश मोहि तुम दीनों तनमनधन प्रान जैसे , तैसेई समाधि साधि ध्यान धर ध्यानोगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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