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अध्याय २ - भक्ति-काव्य
यहां विरह-विलास का पूर्वार्द्ध समाप्त हो जाता है और उत्तरार्द्ध प्रारम्भ होता है जिसमें ऊधो को लौट कर सदेश देने के लिए कहा जाता है ।
ऊधव जाह जरूर ही, कहियो इतौ संदेस । भले धरी' दासी ब जिय लावत कहा अंदेस ।
कवित्त केतिक संदेसे कहि कहि के भिजाये तोहु , प्रावत न काहे एती विनती सुनाइयो । कुविजा धरे की कछू लाज जो करो तो हाहा , सोहै है हमारी इन गौहै उठि धाइयो । कित यौ विपिस्यिान रसनायक परे हैं प्यारे , प्रान ही हमारे नको धीरज धराइयो । जाहु जू जरूर ऊधौ हमरी तरफ ही में ,
नीक समझाय कान्हें बाह देके ल्याइयो । अब ऊधव संदेश सुनाता है
एक रंगे रंग रावरे वही रंग लषात । प्रेम प्रीति लाला करत निसदिन उन्हें विहात ।।
कवित्त को इक गुवाल जाय मिलव वछर लैले , कोऊ देदे हेरी धेनु हेरत विहातु है । कोऊ मिलि मंडली ही बांटि बांटि छाके खात , कोऊ दूध गोरस हो ढोर भागे जात है। कोऊ कहै कान्ह रसनायक बुलावै हरि , कोऊ कहै बोलि भैया काहे इतरातु है । तुम बिन बिचारे वे बिरही विकल नाथ ,
असे दिन राति ब्रजवासिन विहातु है । और कृष्ण भी इसी में अपना स्वर मिलाते हैं
सुन ऊधो ब्रज जनन की मो सुधि विसरत नाहि । सदा रहत जिय जानिहों निसदिन उनही मांहि ।।
कवित्त कूजन की छांह चारु जमुना को तीर वह , ग्वालन की भीर संग गोधन को चारिवो । बाबा नंद जू को प्यार मैया को जिमावन त्यों। वांसुरी छिनाय वह राधे को निहारिवौ ॥
१ "घरेजा" विवाह की यह प्रणाली है जब किसी स्त्री को बिना विधिवत् वैवाहिक संस्कार
के योंही घर में डाल लिया जाता है।
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