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अध्याय ४ -भक्ति-काव्य
अगर जो नाहि तुम श्रेसी नचावत नैन हो काहे ।
करत मुसक्यान की बतियां चलत महकाय की चालन् । दानलीला के इस एक ही उदाहरण में कई बातें दिखाई पड़ती हैं१. विदेशी शब्दों का प्रयोग-महबूब, रोसन (रोशन) रवाशुद, अजायब
(अजीब का बहुवचन) जुल्फ । २. कुछ बहुवचन-मधुरतान : एक वचन; मधुरतान : बहुवचन ।
विदेशो और तत्सम शब्दों का योग-जुल्फ (विदेशी) वर (तत्सम) ३. कविता साधारण कोटि की प्रचलित भाषा में लिखी गई है। ४. मुहावरेदार भाषा में काव्य-योजना। ५. विचित्र प्रयोग---'मुसक्यान की बतिया'; 'चलत चालन' । ६. संभवतः यह काव्य बख्तावरसिंहजी की अपनी रचना है क्योंकि
इसमें कवि-प्रतिभा कम है, व्यावहारिकता अधिक । २. नागलीला
नाथ के बाहर के लाये। सकल वृज देखन कू धाये।
अमर घन नभ मांही छाये। फन फन नाचत कृष्णजी बंसी लीनी हाथ । जो फन ऊंचौ उठत नाग को तापर मारत लात ।।
बजावत गंधर्व दै ताली । बसत इक जमना में काली।
अाज भी कृष्ण की नागलीला बहुत प्रचलित है। मथरा, वृन्दावन, गोवर्धन आदि ब्रज के प्रसिद्ध स्थानों में जाने पर पंडे, चौबे आदि इस प्रकार की ही लीलाएँ सुना कर भक्तों को मुग्ध करते हैं। मैं अपने प्रवास काल में जब ब्रह्मदेश के रंगून नामक नगर में था तो ब्रज के ३-४ पंडे वहाँ भी पहुँचे थे और मारवाड़ियों के घर जा जा कर इसी प्रकार की दानलीला, नागलीला, मानलीला, चीरहरणलीला आदि सुना कर भक्ति-भावना का संचार करते थे और अपने लिए पष्कल दक्षिणा भा एकत्र कर सके थे। इन लीलाओं का गायन अब कम होता जा रहा है क्योंकि पहले तो कृष्ण-भक्ति में ही कमी है और गाने के स्थान में तो केवल सिनेमा के चलते हुए गाने ही सुने जाते हैं। किन्तु आज से २०-२५ वर्ष पहले इन लीलाओं का यथेष्ट प्रचार था-रास, गायन दोनों रूपों में ।
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