________________
मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
फूल पान फल नये नयें हैं । नये सुबादर भूमि रहे हैं ॥ नई चपला चमकत दरसे । नई नई बूंदन घन बरसे ॥ सु नई सबानी पंछी बोलें। नये नये बन करत किलोलें ॥ नई नई तुम बनि ठनि श्राई | नई बेल तरवर पर छाई ।। नये सुलहंगा चीर नये हैं । सब प्राभूषण नये नये हैं ॥ नये सुफल 'कौं जो तुम धारो । नये नये चित नहीं विचारो ॥ कहो नये फल तुमहि चषावें । जो कछु दान नयो सो पावें ॥ अब राधा द्वारा की गई 'काले रंग' की बुराई देखें
स्याम रंग को को पतियावे । हिये हमारे कबहु न भावे || देखो स्याम सर्प हैं जेते । प्रौगुण विषतें भरे हैं तेते ॥ कारे काम करें विधि षोटे । स्याम रंग सब ही हैं छोटे ॥
उत्तर में श्याम अपने भोले भाले मुख से काले रंग की प्रशंसा करते हैं
ष पर स्याम दिठौना सोहै । स्याम चिवुक तिल प्रति मन मोहे ॥ देहु दान क्यों रारि बढ़ावो । ठाढ़ी कबकी बचन बनायो ॥
इसके बाद मुरली से सब को मुग्ध कर लिया और उस बन में गान, नृत्य, केलि, क्रीड़ा, रसरंग की धूम मच गई. परिणाम यह हुआ कि --
मनमोहन मोही व्रज बामा, सरस रंग रीझी सुनि स्यामा ।
श्रौर इस प्रकार शृंगार के सुष्ठ वातावरण में दान देने और लेने के रूप में लीला समाप्त होती है । इस पुस्तक का निर्माणकाल इस प्रकार है
संवत युग सिववदन' वसु, ससि युत कार्तिकमास । कृष्ण पक्ष षष्टी बुधे, पूरण दानविलास ||
कवि ने लीला रचने का स्थान भी बताया है
Jain Education International
"
जगर मगर संपति अगर सोहत नगर नगीच बषत रची लीला सु यह अलवर गढ़ के बीच । मंगल श्री गोविंद को वरन्यौ बषत प्रवीन
"
टर मंगल नितहि नित मंगल करन नवीन ॥
१०३
पुस्तक के अंत में लिखा है " इति श्री कछवाह कुल नरूका रावराजा वषतावरसिंह विरचित श्री राधाकृष्ण दानलीला वर्णनं "
" पठनार्थ दिवाणजी रामलालजी "
इस पुस्तक में निम्नांकित विशेषताएं हैं
१. कविता का स्तर उच्च कोटि का है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org