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________________ -खै Sup I नहीं है, क्योंकि प्रतिप्राचीनकाल में भारतवर्ष की जिस धार्मिक परियात्रा का विधान था वह प्राधुनिक उत्तरप्रदेश के क्षेत्रों से कुरुक्षेत्र होती हुई सिन्धुनदी के किनारे-किनारे गुजरात से समुद्र तट का प्रश्रिय लेकर जाती थी । प्रत: इन प्रदेशों में गमनागमन करने वाले अनेक साधु, सन्त तथा धर्मप्रेमी गृहस्य भारतवर्ष कौने-कौने से आकर परस्पर सम्पर्क स्थापित करते होंगे, जिसके फलस्वरूप एक सम्पैक-भाषा का विकसित होना स्वाभाविक था । जिस समय (सन् १२७९ ई०) लिखी गई उस समय निस्सन्देह संस्कृत केवल विद्वानों की ही सम्पर्कभाषा रह गई थो और संभवतः जन साधारण को भाषा संस्कृत से बहुत दूर चली गई थी । संस्कृत से जनभाषा की दूरों दूर करने के लिये ही सम्भवतः इस पुस्तक के लेखक ने "संस्कारप्रेम" अध्याय में भाषा-शब्दों का संस्कृत के साथ मेल बिठाने का प्रयत्न किया । प्राकृतशब्दों का इस प्रकार संस्कार करने की प्रवृत्ति बहुत प्राचीन काल से चलो या रही है और इसको हम ऋग्वेद में प्रयुक्त 'संस्कृत' प्रादि शब्दों की पृष्ठभूमि में भी देख सकते हैं; अतः पाणिनीयकरण द्वारा हुए महान् प्रयत्न को एकांकी, प्रथमं तथा अन्तिम प्रयत्न नहीं कह सकते । 7 'लक्षण द्रव्य-संग्रह ' प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक ठक्कुर संग्रामसिंह श्रमालवंशीय कूरसिंह के पुत्र थे । उन्होंने स० १३३६ में इस ग्रन्थ की रचना की । ग्रन्थकार ने इसको 'बाल शिक्षा' नाम दिया है और अन्त में इसको एक कहीं है। ग्रंथ के प्रारंभ में 'श्रीं नमः श्रीसरस्वत्यै' कह करें प्रथम श्लोक में 'परब्रह्म' की वन्दना करके शर्विवर्मिक कातन्त्र से संक्षेप में बालशिक्षा के प्रयने की प्रतिज्ञा को गई है। संभवत: इसे प्रारंभिक नमस्कार के आधार पैर व मोहनलाल देवद देसाई ने अपने 'जन साहित्य इतिहास' में ग्रन्थकार को जैन होने का संदेह व्यक्त किया अन्तिम प्रशस्ति के पंद्य ५ में 'वर्धमानाश्रीः केाधर पर सम्भवतः उसके जैन होने का भी संदेह किया जो सकता है | अस्तु, यह तो हैं कि ग्रन्थकार भारतभूमि का एक ऐसा पुत्ररत्न था जो जनाजनादि भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि से सोच सकता था और वर्तमान भेदबुद्धिविधायिनी प्रवृत्ति के विपरीत एकमात्र राष्ट्रीय दृष्टि से भाषी प्रश्न पर विचार करके तत्कालीन जनसाधारण की भाषाओं को सुसंस्कृत रूप प्रदान करने के लिये वने व्याकरण में 'संस्कारकम' को लिख 51162 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003395
Book TitleBalshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1968
Total Pages208
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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